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जैन धर्म अतिवादी नहीं है
साधना का क्षेत्र व्यापक और विस्तृत है । इस सन्दर्भ में जैन संस्कृति की एवं जैन-धर्म की साधना किस प्रकार की है और वह किस पद्धति से की जाती है, इस तथ्य को समझना परम आवश्यक है । जब तक साधना के मर्म को समझने का प्रयत्न नहीं होगा, तब तक साधना का आनन्द नहीं आ सकता । जब साधक का मन साधना में समरसीभाव हो जाता है, तभी वह उस साधना का आनन्द ले सकता है ।
जैन धर्म की साधना के रहस्य को समझने के लिए दो तथ्यों को समझना आवश्यक है-अहिंसा और अनेकान्त । अनेकान्त अथवा स्याद्वाद को बिना समझे साधना के वास्तविक स्वरूप को समझना सरल नहीं है । अनेकान्त की पृष्ठभूमि पर जिस साधना का प्रारम्भ होगा, वह अहिंसामूलक भी होगी । समग्र साधनाओं का मूलकेन्द्र अहिंसा ही हो सकती है और उसको समझने की दृष्टि अनेकान्तवाद ही हो सकता है । अनेकान्तवाद के प्रकाश में अहिंसा के राजपथ पर अग्रसर होते हुए, जो भी साधना की जाती है, वह जैन-धर्म और जैन संस्कृति के अनुकूल ही होती है ।
जैन-दर्शन साधना के क्षेत्र में अतिवाद को स्वीकार नहीं करता । जैन धर्म अथवा जैन संस्कृति मूल में अतिवादी नहीं है, वह अपने मूल स्वरूप में निरतिवादी है । अतिवाद और निरतिवाद दोनों में से निरतिवाद ही श्रेष्ठ है । और साधक के लिए वही ग्राह्य भी है, क्योंकि अतिवाद एकान्तवाद हो जाता है । जो भी एकान्तवाद है, वह सम्यक् नहीं हो सकता, मिथ्या ही होता है । जो कुछ मिथ्या है, वह हमारी साधना का अंग कैसे बन सकता है । इस दृष्टि से मैं आपसे कह रहा था, कि जैन-धर्म, जैन-दर्शन और जैन-संस्कृति अपने मूलरूप में अतिवादी न होकर, निरतिवादी है । अतिवाद एक प्रकार का हठयोग होता है । हठयोग को हम साधना नहीं कह सकते । जैन-दर्शन में हठयोग को मिथ्या साधना कहा है । अतिवाद किसी भी क्षेत्र में ग्राह्य नहीं हो सकता । साधना चाहे आचार की हो, चाहे तप की हो और चाहे योग की हो, किसी भी प्रकार की साधना क्यों न हो, उसमें अतिवाद के लिए जरा भी अवकाश नहीं है । निरतिवाद ही जैन धर्म की और जैन दर्शन की मूल आत्मा है । जैन धर्म की साधना जीवन-विकास के लिए की
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