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समाज और संस्कृति
व्यक्ति अपने जीवन का निरीक्षण एवं परीक्षण भली-भाँति कर सकता है और जीवन के रहस्य को समझ सकता है ।
आचार्य ने बताया है, कि इस जगत में दो प्रकार के मनुष्य हैं-सज्जन और दुर्जन । यद्यपि जन दोनों हैं, किन्तु एक सत् जन है और दूसरा दुर्जन है । सत् और दुर् उनके स्वभाव की अभिव्यक्ति करते हैं । आचार्य ने उक्त श्लोक में इन दोनों व्यक्तियों के शील एवं स्वभाव का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है । सज्जन वह होता है, जिसमें न्याय हो, नीति हो और सदाचार हो । दुर्जन वह होता है, जिसमें दुराचार हो, पापाचार हो और पाखण्ड हो । इन दो प्रकार के व्यक्तियों को भारत के प्राचीन साहित्य में देव और असुर भी कहा गया है । असुर वह होता है, जिसमें आसुरी वृत्ति होती है और देव वह होता है, जिसमें दैवी-वृत्ति होती है । गीता में इसी को आसुरी सम्पदा और दैवी सम्पदा कहा गया है । मैं आपसे यहाँ पर स्वर्ग में रहने वाले देवों की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं आपसे उन असुरों की बात नहीं कर रहा हूँ जो असुर-लोक में रहते हैं, बल्कि मैं आपसे उन असुरों तथा देवों की बात कर रहा हूँ, जो हमारी इसी दुनिया में रहते हैं । मानव-जीवन में बहुत से मानव देव हैं, और बहुत से मनुष्य असुर हैं, राक्षस हैं । राम और रावण की बात एवं राम और रावण की कहानी, भले ही आज इतिहास की वस्तु बन गई हो, लेकिन आज भी इस वर्तमान जीवन में एक दो नहीं, हजारों-लाखों मनुष्य राम और रावण के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । कहा गया है, कि जो व्यक्ति दुर्जन हैं, आत्म-ज्ञान का जिसने पता नहीं पाया है, जिसने महान् जीवन की श्रेष्ठता को नहीं पहचाना है और जिसने यही समझा है, कि भोग-विलास के लिए ही यह जीवन है, वह व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी प्रकार का विकास नहीं कर सकता । दुर्जन व्यक्ति, जिसे केवल अपने वर्तमान जीवन पर ही विश्वास है, अपने अनन्त अतीत
और अनन्त अनागत पर जो विश्वास नहीं कर पाता, वह समझता है, कि जो कुछ है सो यहीं पर है । वह यह नहीं समझ पाता, कि यह वर्तमान जीवन तो जल-बुबुद के समान है, जो अभी बना और अभी मिट गया । इसी प्रकार के लोगों को अपने लक्ष्य में रखकर एक कवि ने कहा है
"ना कोई देखा आवता, ना कोई देखा जात । स्वर्ग नरक और मोक्ष की, गोल मोल है बात ।।"
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