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मानव जीवन की सफलता
___ इस पद्य में उन नास्तिक-वृत्ति के लोगों के मन का विश्लेषण किया है, जो अपने क्षणिक वर्तमान जीवन को ही सब कुछ मान बैठे हैं तथा जो रात और दिन शरीर के पोषण में ही संलग्न रहते हैं । जिन्हें यह भान भी नहीं हो पाता, कि शरीर से भिन्न एक दिव्य शक्ति आत्मा भी है । भोगवादी व्यक्ति भोग को ही सब कुछ समझता है, त्याग और वैराग्य में उसका विश्वास जम नहीं पाता । जिस व्यक्ति का दिव्य आत्मा में विश्वास नहीं होता और जो इस नश्वर तन की आवश्यकता को ही सब कुछ समझता है, उस व्यक्ति का ज्ञान भी विवाद के लिए होता है, धन अहंकार के लिए होता है और शक्ति दूसरों के पीड़न के लिए होती है । दुर्जन व्यक्ति यदि कहीं पर अपने प्रयत्न से विद्या प्राप्त कर भी लेता है, तो वह उसका उपयोग जीवन के अन्धकार को दूर करने के लिए नहीं करता, बल्कि शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करके अपने पाण्डित्य की छाप दूसरों के मन पर अंकित करने के लिए करता है । इस प्रकार का व्यक्ति शास्त्रज्ञान प्राप्त कर ले, विद्या प्राप्त कर ले, किन्तु अपने मन की गांठ को वह खोल नहीं सकता, और जो विद्या मन की गांठ को नहीं खोल सके, वस्तुतः उसे विद्या कहना ही नहीं चाहिए । जो विद्या न अपने मन की गांठ को खोल सके और न दूसरे के मन की गांठ को खोल सके, उस विद्या को भारतीय दर्शन में केवल मस्तिष्क का बोझा कहा गया है । बात यह है, कि कुछ डण्डों से लड़ते हैं और कुछ लोग पोथी-पन्नों से लड़ते हैं । मेरे विचार में दोनों जगह अज्ञान का साम्राज्य है । विद्या ही नहीं, दुर्जन व्यक्ति का धन भी उसके अहंकार की अभिवृद्धि करता है । यदि दुर्जन व्यक्ति के पास दुर्भाग्य से धन हो जाए, तो वह समझता है, कि इस संसार में सब कुछ मैं ही हूँ । मुझसे बढ़कर इस संसार में अन्य कौन हो सकता है । धन से अहंकारी बना हुआ मनुष्य जब किसी बाजार या गली में से निकलता है, तब वह समझता है, कि यह रास्ता संकरा है और मेरी छाती चौड़ी है, मैं इसमें से कैसे निकल सकूँगा । बात यह है, कि धन का मद और धन का नशा दुनिया में सबसे भयंकर है । हिन्दी के नीतिकार कवि बिहारीलाल ने कहा है कि जो व्यक्ति धन को पाकर अहंकार करते हैं, वे व्यक्ति उस व्यक्ति से बढ़कर हैं, जो धतूरे को पीकर पागल हो जाता है
"कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय । वो खाए बौरात है, यह पाए बौराय ।।"
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