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________________ ८४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय में उस पदार्थ को जड़ वस्तु कहते हैं, जो किसी ज्ञाता की अनुभूति में न रहता हुआ भी स्वतन्त्र रूप से रहता है, जिसे स्वयं किसी प्रकार की अनुभूति नहीं होती और जो स्वयं ज्ञान रूप अथवा चैतन्यस्वरूप नहीं होता। जैसे एक हीरा अनन्त काल से खान में पड़ा रहता है, जिसको न तो स्वयं किसी प्रकार की अनुभूति होती है, और न स्वयं चैतन्यस्वरूप है । इस प्रकार जड़वाद की परिभाषा एवं व्याख्या प्रस्तुत की है। जड़ और चेतन का सम्बन्ध : जड़वादी दार्शनिकों का मत है, कि प्रत्येक वस्तु जब चेतन अथवा जीवित अवस्था में आती है, तब उससे पूर्व वह अचेतन एवं अजीवित अवस्था में ही रहती है। प्रत्येक पदार्थ की पूर्व स्थिति जड़ और उत्तर स्थिति चेतन अवस्था की होती है। पदार्थ का यह चेतन रूप, वास्तव में उसके नैसर्गिक जड़ रूप का ही परिणाम है। अतः मूलतः जो पदार्थ जड़ होता है, वही चेतन अथवा जीव बनता है। चेतन वस्तु में लगन, बुद्धि अथवा अनुभूति रहती है । इस दृष्टि से विश्व में सबसे बड़ा मनुष्य माना जाता है । परन्तु वह मनुष्य न शाश्वत है, न सर्वव्यापी हो । जड़वाद के अनुसार मनुष्य अपने देश-काल में सीमित है। उसके जीवन का निर्माण जड़भूत तत्त्वों से ही हुआ है । इसी प्रकार पशु और पक्षी आदि के सम्बन्ध में तथा वनस्पति आदि के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए । जीव उसको कहते हैं, जो गतिशील हो और अनुभूति-शील हो। इस प्रकार की गति और अनुभूति जड़ पदार्थ में धीरे-धीरे विकास करते हुए आ जाती है । किसी जड़वादो से यह पूछा जाए, कि देह और देही में क्या अन्तर है ? तब वह तपाक से जबाब देता है, कि दोनों एक ही हैं। जो कुछ देह है, देही उससे भिन्न नहीं है । किसी जीव पिण्ड अथवा चेतन पिण्ड का विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है, कि उसका निर्माण विभिन्न जड़ द्रव्यों के संमिश्रण से हुआ है। वही मन, शरीर और आत्मा सब कुछ है । शरीर और आत्मा वस्तुतः दो नहीं हैं, क्योंकि जिसे हम जीव-शक्ति अथवा आत्म-शक्ति कहते हैं, वह शरीर से भिन्न नहीं है। जड़वादी विचारकों का यह सिद्धान्त है, कि शरीर के उत्पन्न होने से पहले और शरीर के नष्ट होने के बाद आत्मा भी नष्ट हो जाता है। जब शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाता है, तब पुनर्जन्म अथवा परलोक का सिद्धान्त बनता ही नहीं । धर्म, पुण्य और पाप ये सब कुछ नहीं हैं। न कहीं जाना है और न कहीं से आना है । लगन और मस्तिष्क सम्बन्धी विकास की जो बातें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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