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६८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय वर्तमान में है । आत्मा अनन्त अनागत में रहेगा। सिद्धान्त रूप में यह कथन, कि आत्मा, अमर, अजर और अभय है । अधि शब्द का अर्थ है, कि अन्दर में, आत्मा की सघन गहनता में पहुँचकर, दैविक तथा भौतिक में विश्वास न रखकर, एकमात्र चैतन्य स्वरूप आत्मा में ही श्रद्धान रखना। संसृति में भूत एवं भौतिक भरा पड़ा है, हम उसकी चमक-दमक में चौंधियाकर, उसे अपना मान बैठे हैं, उस मान्यता को छोड़कर, अपने निज रूप को चींधकर, उसे पाने का जो प्रयत्न अपने अन्तर में चल रहा है - यही है, अध्यात्म भाव की साधना । उस साधना का बौद्धिक रूप हैअध्यात्मवाद ।
सिद्धान्त और समाचार दोनों मिलकर, अध्यात्मवाद बनते हैं । बुद्धि और तदनुरूप क्रिया पर, जब सुदृढ़ आस्था टिक जाती है, तब अध्यात्म भाव फलवान बनता है । उस के आधारभूत तत्त्व दो हैं-जीव और कर्म । जीव स्वतन्त्र कर्ता है, कर्म का और साथ ही उसके फल का भोक्ता । जीव, जड़ नहीं, चेतन है । कर्म, चेतन नहीं, जड़ है । दोनों का सयोग बन्ध है। दोनों का वियोग मोक्ष है । भव और मोक्ष, परस्पर विरोधी रहे हैं । मोक्ष जाना हो, तो भव को त्याग देना होगा। भव में रहना हो, तो मोक्ष को जोड़ देना होगा । भव भी रहे और मोक्ष भी जाए, परस्पर विरुद्ध हैं। जिन हेतुओं से बन्ध होता है, तद् विपरीत हेतुओं से मोक्ष होता है । मोक्ष के हेतु, बन्ध के हेतु नहीं हो सकते । बन्ध के कारण, मोक्ष के कारण नहीं बन सकते हैं। मोक्ष श्रेयस है, बन्ध प्रेयस है। बन्ध मिलता है, भूत एवं भौतिक से । मोक्ष मिलता है, चित्त तथा चैतसिक से । बन्ध के कारण पांच हैं
१. मिथ्यात्व विपरीत श्रद्धान २. अव्रत
संयम का अभाव ३. प्रमाद
धर्म में प्रीति की मन्दता ४. कषाय
संसार लाभ का कारण ५. योग
मनोवाक-काय की क्रिया इन पाँचों से जीव कर्मबद्ध हो जाता है। संसार-दुःख के उत्पादक कारण ये ही हैं । मोक्ष के कारण भी पांच हैं१. सम्यक्त्व
सम्यक् श्रद्धान २. व्रत
संयम
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