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जैन-दर्शन का अध्यात्मवाद
जैन परम्परा, जैन धर्म, जैन संस्कृति और जैन दर्शन का प्राणभूत, मूल सिद्धान्त और उसकी जीवन जीने की पद्धति का आधार तत्त्व अध्यात्मवाद रहा है। तीर्थंकर, तदनुयायी गणधर, धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रख्यात व्याख्याकार आचार्यों की मूलभूत वाणी, संगुम्फना और टीकाअनुटीकाओं की मूल ध्वनि एकमात्र अध्यात्मवाद कही जा सकती है । अध्यात्मवाद का अभिप्राय यह है, कि अपने अन्दर देखो । न नीचे देखो, न ऊपर देखो, न इधर-उधर देखो । परखना हो, तो अपने आप को परखो । निहारो, अपने अन्तर में। जो पाना है, उसको अपने आप में खोजो। जिसने खोजा है, उसे अपनत्व से भिन्न, अन्य कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सका है । अपने में, अपने आप को खोजना ही वस्तुतः अध्यात्मवाद कहा गया है । विकृति में प्रकृति खो चुकी है, अब विकृति को संस्कृति में परिणत करके पुनः प्रकृति को पाना है - यही है, जैन दर्शन का अध्यात्मवाद । सोचो, समझो, तुमने अपनत्व को स्वयं खोया है, तो पाना भी तुमको स्वयं ही होगा । पैर में कांटा लगा है, तो उसको दूर करना भी अपने विकास एवं प्रगति के लिए आवश्यक है, अन्यथा कैसी गति ? कैसी प्रगति, और कैसा विकास ? छोटे कांटे को निकालने के लिए बड़ा कांटा अनिवार्य है, लेकिन अन्त में, उसको भी फेंक देना है। दुःख की नदी को पार करने भर के लिए सुख की नौका में बैठना बुरा नहीं कहा जा सकता, परन्तु नदी को पार करने के बाद भी उसको अपने सिर पर उठाकर चल पड़ना, अवश्य ही बुरा कहा जाएगा। सरिता पार करने के पश्चात् तरणी निष्प्रयोजन हो चुकी है । अब, उसको छोड़ने में ही कल्याण है-यही है-अध्यात्मवाद ।
___ अध्यात्मवाद में तीन शब्द हैं-अधि+आत्मन्+वाद । वाद का अभिप्राय है, सिद्धान्त अथवा कथन । किस का कथन, आत्मा का प्रतिपादन । कैसा होगा, प्रतिपादन ? आत्मा अनन्त अतीत में था। आत्मा
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