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________________ कर्म तत्त्व मीमांसा ६३ ईश्वर की नहीं हैं । जब जीव अपने आवरणों को पूर्णतया हटा देता है, तब उसकी शक्ति पूर्णतया प्रकट हो जाती है। फिर जीव और ईश्वर में किसी भी प्रकार का भेद अथवा विषमता नहीं रह जाती। विषमता का कारण तो उपाधि है । कर्म ही तो सबसे बड़ी उपाधि मानी है। आत्मा और परमात्मा में, केवल कम का ही भेद है, कम रूप उपाधि का ही भेद है। यदि कर्म को हटा दिया जाए, फिर न भेद है, न खेद है । कर्मवाद के अनुसार सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं । अतः ईश्वर एक नहीं अनन्त हैं। संसार में जीव अनन्त हैं। जो कर्मों के बन्धन से विमुक्त हो गया, वह ईश्वर है, वह भगवान है, वह अर्हन् एवं जिन है। वह फिर किसी पर राग नहीं करता, द्वष नहीं करता, मोह नहीं करता। वह किसी पर क्रूरता एवं करुणा नहीं करता। मुक्त जीव फिर अवतार भी नहीं लेता। क्योंकि जन्म-मरण के कारण अब उसमें परिशेष नहीं रह जाते हैं । कर्म तत्त्व की प्राचीनता: कर्म का सिद्धान्त कब से उदय में आया ? कब से इसका प्रचार एवं प्रसार संसार में आया ? भारत के तीन मूल सम्प्रदाय प्राचीन काल से प्रसिद्ध रहे हैं-जैन, वैदिक और बौद्ध । वैदिक धर्म का प्रारम्भ ऋग्वेद से होता है । उसमें कर्म का प्रयोग क्रिया के रूप में था । कर्म की वह अवस्था उस में नहीं, जो दर्शन युग में एवं तर्क युग में थी । वेदों के विशेष सम्प्रदाय मीमांसा दर्शन का तो मूल आधार ही है, लेकिन वह कर्म यज्ञ और होम क्रिया रूप है । वह क्रिया बाहर की है, उसका सम्बन्ध आत्मा के साथ नहीं है। उस दर्शन में क्रिया को कर्म कहा है। बौद्ध दर्शन का उदय बुद्ध से प्रारम्भ होता है। इसमें कर्म का स्वरूप केवल क्रिया रूप न होकर, भाव रूप भी है। तथागत का दर्शन क्षणिकवादी है, फिर भी उसमें पूर्वजन्म और उत्तर जन्म को स्वीकार किया है । कर्म के अतिरिक्त उसने कर्म के स्थान पर वासना शब्द का प्रयोम अधिक किया है । कर्म बन्ध का कारण उसमें अविद्या को बताया है। कर्म अपना फल अवश्य देता है, इस सत्य को स्वीकार किया है । कम को आत्मा का बन्धन कहा हैं। विभिन्न दर्शन में : __ कर्म के बन्धक कारणों तथा उसके क्षय के उपायों के विषय में तो मोक्षवादी दर्शन में एकता पूरी तो नहीं, परन्तु कम-अधिक रूप में एकमत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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