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________________ ६२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय स्वतन्त्र है । अपने कर्म का फल जीव स्वयं ही भोगता है । उसे किसी भी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार जो कर्म का कर्ता होता है, वही उसके फल का भी भोक्ता होता है। कर्म करे जीव और फल दे ईश्वर, यह उचित नहीं । क्योंकि जैन दर्शन में भगवान की व्याख्या अलग है । अर्हतु, जिन, वीतराग और केवली को ही भगवान माना है । भगवान बनने के लिए दो बातों को मानना आवश्यक है - जिस में वीतरागता हो, और सर्वज्ञता हो, वही भगवान हो सकता है । कोई भी व्यक्ति, भगवान होने की योग्यता रखता है । अतः ईश्वर या भगवान एक नहीं, अनन्त हैं । जीव जैसा कम करते है, उनको उनके कर्मों का फल, कर्म द्वारा ही मिल जाता है । कर्म जड़ है, जीवन चेतन है, फिर जड़ कर्म चेतन जीव को फल कैसे दे सकता है । इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि जीव संग से जड़ कर्म में इस प्रकार की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, कि जड़ कर्म अपने शुभ-अशुभ विपाकों को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है । कर्मवाद यह नहीं मानता है, कि चेतन के सम्बन्ध के अतिरिक्त ही जड़ कर्म भोग एवं फल देने में समर्थ है। जीव और कर्म के मध्य में फलदाता किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं । क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, वे जैसा कर्म करते हैं, उसके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी हो बन जाती है । कर्म फल की इच्छा न होने पर भी जीव को कर्म फलता ही है । एक व्यक्ति प्रज्वलित अग्नि में हाथ डालता है, पर वह नहीं चाहता है, कि उसका हाथ जले । परन्तु हाथ जलता है । भंग पोने वाले को नशा आता ही है । सुरापान करने वाले की बुद्धि विकृत होती है। ईश्वर कर्तृत्व वादी कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर, कर्म अपना-अपना फल जीवों पर प्रकट करते हैं । कर्मवादी कहते है, कि कर्म के करने के समय जीव में इस प्रकार के संस्कार पड़ जाते हैं, कि जिन से प्रेरित होकर कर्ता जीव कर्म के फल को आप हा भोगते हैं, और कम उन पर अपने फल को स्वयं ही प्रकट करते हैं । इस प्रकार ईश्वर कर्तृत्ववाद में और कर्मवाद में परस्पर विचार भेद तथा मान्यता भेद स्पष्ट है । ईश्वर और जीव : ईश्वर चेतन है, और जीव भी चेतन है । फिर दोनों में अन्तर क्या है ? अन्तर यह है, कि जीव की समस्त शक्तियां कर्म से आवृत हैं, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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