________________
संक्षेप रूप :
मध्यम रूप
३. आस्रव
४. बन्ध
५. पुण्य
६. पाप
Jain Education International
७. संवर
८. निर्जरा
६. मोक्ष
१ जीव
२. अजीव
१. मूर्त २. अमूर्त
अथवा
१. रूपी
२. अरूपी
१. ज्ञेय
२. हेय ३. उपादेय
जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा
तत्त्वों का विभाग तीन दृष्टियों से किया गया है-आगम, दर्शन और अध्यात्म | आगमों में नव तत्त्व अथवा नव पदार्थों का मुख्यतया वर्णन किया है। दर्शन ग्रन्थों में प्रधानतया षड् द्रव्य एवं पञ्च अस्तिकाय का वर्णन है । अध्यात्म ग्रन्थों में ज्ञेय, हेय और उपादेय रूप में वर्णन उपलब्ध होता है । ग्रन्थकारों ने अपने शिष्य की बुद्धि और अपनी रुचि के अनुसार कहीं पर विस्तार से और कहीं पर संक्षेप से वर्णन किया है । एक व्यक्ति तत्त्व को विस्तार से जानना चाहता है । दूसरा व्यक्ति संक्षेप में समझना चाहता है । एक व्यक्ति समझना भर चाहता है । दूसरा समझकर, तदनुसार जीवन जीना चाहता है । उपदेष्टा सामने वाले की योग्यता, शक्ति और बुद्धि को नाप कर ही उपदेश करता है । यही कारण है, कि ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से तत्त्वों का वर्गीकरण, विभाजन और संख्या भेद दृष्टिगोचर होता है । प्रतिपादन शैली भी भिन्न-भिन्न होती है ।
२५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org