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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त १५ को दूर हटा कर विशुद्ध हो जाए, तो मोक्ष प्राप्त कर सकता है । बन्धन का विचार करने मात्र से बन्ध से छुटकारा नहीं मिलता है। छुटकारा पाने के लिए बन्ध को और आत्मा को स्वभावतःभली-भांति समझकर बन्ध से विरक्त होना चाहिए । जीव और बन्ध के अलग-अलग लक्षण समझकर प्रज्ञा रूपी छरी से उन्हें अलग करना चाहिए, तभी बन्ध छूटता है बन्ध को छेदकर क्या करना चाहिए? आत्म-स्वरूप में स्थित होना चाहिए। आत्म स्वरूप को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि मुमुक्षु को आत्मा का इस प्रकार विचार करना चाहिए-मैं चेतनस्वरूप हैं, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, शेष जो कुछ भी है, वह मुझसे भिन्न है। शुद्ध आत्मा को समझने वाला व्यक्ति समस्त पर-भावों को परकीय जानकर उनसे अलग हो जाता है। यह पर-भाव से अलग हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है।' इस प्रकार जैन-दर्शन में मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । जैनदर्शन में विशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करने को ही मोक्ष कहा गया है।
सांख्य दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक एक प्रकार का भेद-विज्ञान है। इसके विपरीत बन्ध प्रकृति और पुरुष का अविवेक है। पुरुष नित्य और मुक्त है, अपने अविवेक के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य मान लेता है। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार-ये सब प्रकृति के विकार हैं, लेकिन अविवेक के कारण पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है । मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति है । बन्ध एक प्रतीति मात्र है, और इसका कारण अविवेक है । योगदर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की एक अवस्था विशेष है। आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति तब होती है, जब तप और संयम के द्वारा मन से सब कर्म-संस्कार. निकल जाते हैं। सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्मात्र अवस्थिति मानते हैं। इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत हो जाता है। क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियां मात्र है। इन वृत्तियों का आत्यन्तिक अभाव हो सांख्य और योग-दर्शन में मुक्ति है। __न्याय और वैशेषिक दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते
१ समयसार, २ समयसार,
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