SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय आस्था रखने वाले आस्तिक-दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को एक स्वर से स्वीकार किया है। चार्वाक-दर्शन का कहना है, कि मरण ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है । मोक्ष का सिद्धान्त सभी भारतीय-दार्शनिकों को मान्य है। भौतिकवादी होने के कारण एक चार्वाक ही उसको स्वीकार नहीं करता। क्योंकि आत्मा को वह शरीर से भिन्न सत्ता नहीं मानता। अतः उसके दर्शन में आत्मा के मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता। चार्वाक की दृष्टि में इस जीवन में और इसी लोक में सुख भोग करना मोक्ष है। इससे भिन्न इस प्रकार के मोक्ष की कल्पना वह कर ही नहीं सकता, जिसमें आत्मा एक लोकातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। बौद्ध-दर्शन में आत्मा की इस लोकातीत अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा गया है । यद्यपि निर्वाण शब्द जैन ग्रन्थों में भी बहुलता से उलब्ध होता है, फिर भी इसका प्रयोग बौद्ध-दर्शन में ही अधिक रूढ़ है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार निर्वाण शब्द सब दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था को अभिव्यक्त करता है। निर्वाण शब्द का अर्थ है-बुझ जाना । लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि निर्वाण में आत्मा का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार इसमें आत्यन्तिक विनाश तो अवश्य होता है, लेकिन दुःख का होता है, न कि आत्म-सन्तति का। कुछ बौद्ध-दार्शनिक निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था मानते हैं । इस प्रकार बौद्ध-दर्शन क्षणिकवादी होकर भी जन्मान्तर और निर्वाण को स्वीकार करता है। जैन दार्शनिक प्रारम्भ से ही मोक्षवादी रहे हैं । जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा की स्वाभाविक अवस्था ही मोक्ष है। अनन्त-दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त-सुख और अनन्त-शक्ति का प्रकट होना ही मोक्ष है । आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को तब प्राप्त करता है, जब कि वह सम्यक्-दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक-चारित्र को साधना के द्वारा कर्म पुद्गल के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है । जैन-परम्परा के महान् अध्यात्मवादी आचार्य कुन्द-कुन्द ने अपने समयसार में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-"एक व्यक्ति लम्बे समय से कारागृह में पड़ा हो, और अपने बन्धन की तीव्रता एवं मन्दता को तथा बन्धन के काल को भलीभांति समझता हो, परन्तु जब तक वह अपने बन्धन के वश होकर उसका छेदन नहीं करता, तब तक लम्बा समय व्यतीत हो जाने पर भी वह छूट नहीं सकता । इसी प्रकार कोई मनुष्य अपने कर्म-बन्धन का प्रदेश, स्थिति, प्रकृति और अनुभाग को भली-भांति समझता हो, तो भी इतने मात्र से वह कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। वही आत्मा यदि राग एवं द्वेष आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy