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परिशिष्ट
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तर्क-शास्त्र में प्रमाण का दूसरा भेद है-परोक्ष । अस्पष्ट अथवा अविशद ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहा गया है। अस्पष्टता तथा अविशदता क्या है ? जिस ज्ञान में, कोई दूसरा ज्ञान निमित्त हो, वह अस्पष्ट तथा अविशद होता है । स्मृति में पूर्व अनुभव निमित है, अनुमान में व्याप्ति स्मरण निमित्त है । अतः ये परोक्ष प्रमाण हैं । क्योंकि ये अस्पष्ट हैं। परोक्ष प्रमाण :
जैन तर्क-शास्त्र में परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं-स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । अतीत का स्मरण, अतीत तथा वर्तमान का प्रत्यभिज्ञान, व्याप्ति में सहयोगी तर्क, साधन से साध्य का ज्ञान अनुमान और आप्त-पुरुष के वचन से होने वाला शास्त्र-ज्ञान ।
२. प्रमाण और नय
प्रमाण और नय, दोनों ज्ञान रूप हैं। दोनों परस्पर अभिन्न हैं, या भिन्न है ? यदि दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं, तो प्रमाण-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-चार प्रकार का होता है, और नय सात प्रकार का होता है । फिर दोनों एक-दूसरे के पर्याय वाचक कैसे हो सकते हैं ? इसका समाधान स्याद्वाद के द्वारा हो सकता है। तीसरे भंग में कहा गया है, कि कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न । जैसे कि शाखा-प्रशाखाएं वृक्ष से भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी । शाखाओं को वृक्ष नहीं कह सकते हैं, और न अवृक्ष । अतः भिन्न-भिन्न हैं।
प्रमाण यदि समुद्र है, तो नय तरंग है। प्रमाण यदि सूर्य है, तो नय रश्मि-जाल है । प्रमाण का सम्बन्ध पाँच प्रकार के ज्ञान से है, जबकि नय का सम्बन्ध केवल श्रुत ज्ञान से है । ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, और नय श्रत ज्ञान रूप प्रमाण का अंश विशेष है। नय का अर्थ है-जिस ज्ञान के द्वारा • अनन्त धर्मों में से किसी विवक्षित एक धर्म का निश्चय होता है। नय न तो प्रमाण है, और न अप्रमाण । प्रमाण का एक अंश है। जैसे कि तरंग न समुद्र है, न असमुद्र है। समुद्र का एक अंश है। अतः प्रमाण और नय, भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी हैं।
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