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१. प्रमाण
प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि होती है। बिना प्रमाण के वस्तु का परिबोध नहीं हो सकता। प्रमाण का अर्थ है-वस्तु का यथार्थबोध । जैन दर्शन में प्रमाण की व्याख्या दो पद्धति से की है-आगम पद्धति तथा तर्क पद्धति । ज्ञान-मीमांसा और प्रमाण-मीमांसा। आगम-युग में भी तर्क पद्धति का प्रारम्भ हो चुका था। ज्ञान-मीमांसा :
आगमों में ज्ञान के पांच भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल । प्रथम दो ज्ञान इन्द्रिय और मन के सहयोग से होने के कारण परोक्ष हैं । अगले तीन ज्ञान बिना इन्द्रिय एवं मन के सहयोग के होने से प्रत्यक्ष हैं । अतः प्रमाण दो प्रकार का हुआ प्रत्यक्ष तथा परोक्ष । सम्यग्ज्ञान ही तो प्रमाण है। प्रमाण-मीमांसा:
__ यहाँ प्रमाण का अर्थ है-स्व-पर-व्यवसायि ज्ञान । जो ज्ञान अपना स्वयं का तथा पर का अपने से भिन्न का निश्चय करता है, वह प्रमाण कहलाता है । यह प्रदीपवत् अपने को और पर को प्रकाशित करता है। प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । अक्ष शब्द के दो अर्थ हैं-अक्ष अर्थात् इन्द्रिय एवं अक्ष अर्थात् आत्मा । जब अक्ष का अर्थ इन्द्रिय होता है, तब प्रत्यक्ष का अर्थ होगा-इन्द्रिय मनोजन्य ज्ञान । यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । जब अक्ष का अर्थ आत्मा होता है, तब प्रत्यक्ष का अर्थ होगा-सीधा आत्म-समुत्थ ज्ञान । वह तीन प्रकार का है-अवधि, मनः पर्याय और केवल । तीनों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। उसके दो भेद होते हैं- सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । सकल है, केवल ज्ञान और विकल है-अवधि एवं मनः पर्याय । अतः तक शास्त्र में प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैं-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ।
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