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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १६१ अंग माना है. जबकि पाश्चात्य-दर्शनों में नीति-शास्त्र का स्वतन्त्र रूप विकास हुआ है । यही बात सौन्दर्य-शास्त्र के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। भारतीय-दर्शन कला को दर्शन रूप में परिगणित नहीं करते हैं। पाश्चात्य दर्शन की रूप-रेखा :
पाश्चोत्य-दर्शन का प्रारम्भ यूनान में होता है। और उसका विस्तार यूरोप में हुआ। अमेरिका के दार्शनिकों ने भी दर्शन की अपने ढंग से व्याख्या की है । सत्य का अन्वेषण दार्शनिक का मुख्य कर्तव्य रहा है । पाश्चात्य-दार्शनिकों ने सत्य की खोज बड़े प्रेम और अध्यवसाय से की है। किसी भी देश के दर्शन पर उस देश के काल और परिस्थिति का प्रभाव पड़ता है । युगानुकूल दर्शन की मूल मान्यताओं में भी अन्तर पड़ना इस अर्थ में स्वाभाविक हो सकता है। विश्व में दो ही दर्शन प्राचीन हैंभारतीय-दर्शन, और यूनानी-दर्शन । यूनानी-दार्शनिकों ने सत्य की शोध में जो परिश्रम किया है, वह भारतीय-दार्शनिकों से किसी भी भांति कम नहीं कहा जा सकता । यूनानी-दार्शनिक सत्य का साक्षात्कार करना चाहते थे, और उन्होंने जो साक्षात्कार किया, उसी का परिणाम यूनानी-दर्शन है। यूनानी-दर्शन का प्रभाव किस प्रकार रोम पर पड़ा है ? फिर उससे यूरोप के विचारक प्रभावित होकर अपने दर्शन का विकास करते रहे ? यही वस्तुतः पाश्चात्य-दर्शन की रूप-रेखा अथवा आकार-प्रकार हो सकता है। समग्र पाश्चात्य-दर्शन को चार कालों में विभाजित किया गया है
१. प्राचीन-युग २. मध्य-युग ३. अर्वाचीन-युग
४. आधुनिक-युग प्राचीन-युग :
पाश्चात्य-दर्शन का उदय ग्रीस के दार्शनिकों से होता है । ग्रीसदार्शनिकों में अथवा यूनानी-दार्शनिकों में सर्वोच्च नाम सुकरात (Sncrateas) का आता है । परन्तु उस देश में दर्शन का उदय सुकरात से बहुत पूर्व हो चुका था। यूनान के धर्म में भी दर्शन के सिद्धान्त के मूल बीज दृष्टिगोचर होते हैं। वहाँ की धार्मिक दन्त-कथा (Mythology) में एक दार्शनिक देवता की सूचना मिलती है। इस देवता का नाम था निमेसिस (Nemesis) इसका अर्थ होता है- व्यवस्था की देवी । उसका
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