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________________ १५० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय इसका निषेधात्मक उत्तर देते हैं । पर पाश्चात्य विद्वान यह स्वीकार करते हैं, कि जब ज्ञान के अन्य क्षेत्रों का इतिहास हो सकता है, तब दर्शन - शास्त्र का इतिहास क्यों नहीं होगा ? भारतीय दर्शन इतिहास- बद्ध नहीं है, इस प्रकार का आक्षेप पाश्चात्य विद्वान किया करते हैं । वास्तव में भारतीयदर्शन, अपने आप में दर्शन है, विचार शास्त्र है, वह संवत और तिथियों की गणना को उतना महत्व नहीं देता, जितना कि विचारों की क्रमबद्धता को। यदि विचारों की क्रमबद्धता का नाम ही इतिहास हो, तब निश्चिय ही वह भारतीय दर्शन में पहले भी उपलब्ध था, और आज भी उपलब्ध है । पाश्चात्य दर्शन की स्थिति भारतीय दर्शन से भिन्न है । उसका अपना एक क्रमबद्ध इतिहास है, और क्रमिक विकास भी । दर्शन - शास्त्र का इतिहास मानव के दार्शनिक विवेचन की एक लम्बी कहानी है । पाश्चात्य विद्वानों ने दर्शन - शास्त्र के इतिहास को तीन भागों में विभक्त किया है १. प्राचीन तत्त्वज्ञान २. मध्यकालीन तत्त्व-ज्ञान ३. नवीन तत्त्व - ज्ञान कुछ लोग मध्यकालीन तत्त्व-ज्ञान को प्राचीन और नवीन काल में मेल करने वाली कड़ी समझते हैं, और इतिहास के दो भागों को ही महत्व - पूर्ण समझते हैं । प्राचीन काल में जो स्वतन्त्र विचार हुआ, उसका मुख्य केन्द्र यूनान रहा । रोम का विचार यूनान के विचार पर आधारित था । आधुनिक काल में यूरोप में अनेक स्थानों में विवेचक विद्वान प्रकट हुए हैं । इस विचार पर से पश्चिमी दर्शन के इतिहास को यूनानी और यूरोपी दो भागों में भी बांटा जा सकता है । अपनी कल्पना से हम दर्शन - शास्त्र के इतिहास के अन्य विभाग भी कल्पित कर सकते हैं और किए भी हैं । जैसा कि पहले कहा जा चुका है - दर्शन - शास्त्र के मुख्य तीन विषय हैं - बाह्य जगत, जीव और ईश्वर । प्राचीन यूनान के लोग जानना चाहते थे, कि यह जगत कहाँ से आया ? कैसे आया ? और क्यों आया ? विचा रकों ने जगत के मूल तत्त्व की व्याख्या करते हुए- किसी ने जल को, किसी ने अग्नि को और किसी ने वायु को उसका मूल कारण बताया । किसी ने आगे बढ़कर यह भी कहा, कि जगत के मूल कारण को प्रकृति में ढूंढ़ना व्यर्थ है, इसके लिए चेतन-शक्ति की आवश्यकता है। अरस्तू ने कहा, कि सारे अन्धों में केवल एक रोनक्सेगोरस ही एक देखने वाला था, इसके पीछे यूनान में मुख्य प्रश्न विश्व और चेतन इसके मूल कारण के सम्बन्ध को समझा जाने लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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