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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १४६ उन्होंने आकर्षण शक्ति को शरण ली । कामट इसे दार्शनिक-स्तर कहता है ।
३. तृतीय-स्तर में जिस पर मानव जाति अब चल रही है, कल्पना को एक ओर रख दिया है, और तथ्य को यथार्थ रूप में देखना ही पर्याप्त समझा जाता है । यदि किसी समाधान की सम्भावना है, तो वह हमारी पहुँच से परे है । कामट इसे वास्तविकता-वाद कहता है। कामट के अनुसार धर्म और तत्त्व-ज्ञान दोनों पूर्वकाल में सांसारिक घटनाओं के समाधान स्वीकार किए जाते थे । अब दोनों का समय बीत चुका है।
जर्मनी के दार्शनिक हेगल ने धर्म और तत्त्व-ज्ञान को अभिन्न बताया है। भारत में गीता में कुछ लोग तत्त्व-ज्ञान पढ़ते हैं, पर अधिकांश लोग इसे धर्म-पुस्तक के रूप में देखते हैं। एक अन्य विचार के अनुसार धर्म तत्त्व-ज्ञान से आगे जाता है। तत्त्व-ज्ञान आत्मिक जीवन के एक अश के साथ सम्बद्ध है, इसका श्रद्धा और कर्म से सम्बन्ध नहीं। धर्म का उद्देश्य आत्म-सिद्धि है, जिसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों का मूल्य है। विज्ञान, तत्त्व-ज्ञान और धर्म तीनों सत्य का स्वरूप जानना चाहते हैं, पर उसे कैसे प्राप्त किया जाए। यह एक समस्या है, जिसका समाधान भारतीय-दर्शन इस प्रकार से देता है
भारत में दर्शन-शास्त्र प्रमाणों को अपने अध्ययन का एक मुख्य विषय बताता आया है। प्रमाण तीन हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द । प्रत्यक्ष वह है, जो इन्द्रियों के प्रयोग से प्राप्त होता है, अथवा अन्दर की ओर दृष्टि डालने से स्पष्ट अनुभूत होता है। जैसे-मैं कलम को देखता हूँ । परमाणुओं को हम देख नहीं सकते, परन्तु जो कुछ देखते हैं, उसके आधार पर उसका अनुमान करते हैं । एक लड़का अपनी मां को पोट रहा है । मैं जानना चाहता हूँ, कि वह ऐसा क्यों करता है ? स्थिति को देखकर मैं अनुमान करता हूँ, कि उसके दिमाग में कुछ विकार है। लड़के का पिता पास खड़ा देख रहा है। मैं उसकी इस भावना को नीच वत्ति कहता है। यह ऊँच-नीच का विचार न प्रत्यक्ष है, और न अनुमान, यह शब्द प्रमाण है। विज्ञान में प्रत्यक्ष प्रधान है, तत्त्व-ज्ञान में अनुमान की प्रधानता है, और धर्म शब्द प्रमाण पर आश्रित है। धर्म का अर्थ है-शास्त्र-आश्रित भावना। इतिहास और दर्शन :
क्या दर्शन को किसी इतिहास की आवश्यकता है ? भारतीय विद्वान
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