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१३४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय भावना, संशय की भावना और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा दर्शन की उत्पत्ति के अव्यावहारिक कारण हैं । इन विद्वानों के मत में दर्शन की उत्पत्ति का व्यावहारिक कारण यह हो सकता है, और वह है- मनुष्य के भीतर अपने जीवन के प्रति असन्तोष की भावना । मनुष्य का जीवन जरा, मरण और व्याधि से दुःखमय है। आशा और तृष्णा उसके मानस को सदा अशान्त रखती है । जीवन सदा अशान्त क्यों रहता है ? इस असन्तोष को समझना ही दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण माना जा सकता है। वर्तमान जीवन उसे असन्तोषपूर्ण प्रतीत होता है, अतः वह किसी सन्तोषमय, सुखमय एवं आनन्दमय जीवन की खोज करने के लिए आतुर हो जाता है। इस आतुरता में से ही दर्शन-शास्त्र का आविर्भाव होता है । जब मनुष्य विश्व और अपने जीवन के सम्बन्ध में विचार करने के लिए बाध्य होता है, कि मेरा स्वरूप क्या है, और इस दृश्यमान जगत का स्वरूप क्या है ? क्या वर्तमान जीवन ही सब कुछ है, और इससे परे कुछ भी नहीं है ? इस प्रकार के असन्तोष में से ही उसे जिस सत्य एवं तथ्य की उपलब्धि होती है, वही वस्तुतः दर्शन-शास्त्र है। इस प्रकार संसार के प्रति असन्तोष की भावना दार्शनिक विचारों को उत्पन्न करती है । भारतीय-दर्शन में भी इस विचार को स्थान मिला है । परन्तु उसकी मूल धारणा सत्य की जिज्ञासा ही है।
इस प्रकार दर्शन की उत्पत्ति के चार कारणों पर दार्शनिकों ने विचार किया है। परन्तु पाश्चात्य दार्शनिकों में मुख्य रूप से संशय की भावना को ही दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण माना है। पाश्चात्य विचारकों में शंका का एवं संशय का स्थान इतना व्यापक है, जितना पहले कभी नहीं था । आज का मनुष्य ईश्वर और आत्मा के सम्बन्ध में ही शंका नहीं करता, बल्कि उन सामान्य मान्यताओं के सम्बन्ध में भी शंका करने लगा है, जो विज्ञान का ठोस आधार मानी जाती हैं, और जिनके सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के मन में शंका करने का कभी प्रश्न ही नहीं उठता था। जड़-तत्व (Matter), देश (Space), काल (Time) और कार्य-कारण का नियम (Causation) विज्ञान के मूल आधार माने जाते थे। परन्तु आज कल के वैज्ञानिक स्वयं इनकी सत्यता में सन्देह करने लगे हैं। उनका कथन है, कि यह वस्तुतः सत्य नहीं है, क्योंकि इनका आधार केवल हमारा अनुभब ही है । विज्ञान को एक अभूतपूर्व क्रान्ति का सामना करना पड़ रहा
१ पाश्चात्य-दर्शन-दर्पण, पृष्ठ ४
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