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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ११७ में धार्मिक कृत्यों के अनुष्ठान इष्ट-साधन का ज्ञान कारण है, परन्तु प्रभाकर कार्यता ज्ञान को कारण अंगीकार करता है । उसके विचार के अनुसार वेदविहित कृत्यों का अनुष्ठान कर्तव्य बुद्धि से करना चाहिए, उनसे न सुख पाने की आशा रखे और न अन्य किसी फल पाने की इच्छा। कुमारिल का कथन है-काम्य कर्म विशेष इच्छा की सिद्धि के लिए किये जाते हैं, इसके विपरीत प्रभाकर का मत है, कि काम्य-कर्म में कामना का निर्देश सच्चे अधिकारी की परीक्षा करने के लिए है -वैसी कामना करने वाला पुरुष उस कर्म का सच्चा अधिकारी सिद्ध होता है। इन दोनों का नित्य कर्म के विषय में मतभेद स्पष्ट है। कुमारिल के मत में नित्य-कर्म-जैसे संध्या, वन्दन आदि के अनुष्ठान से पाप का नाश होता है, और अनुष्ठान के अभाव में पाप उत्पन्न होता है। परन्तु प्रभाकर के मत में नित्य-कर्म का अनुष्ठान वेदविहित होने के कारण ही कर्तव्य रूप है । क्योंकि वेद की यह आज्ञा है, कि प्रतिदिन संध्या को उपासना करनी चाहिए। इस उद्देश्य से, कर्तव्य-कर्म होने की दृष्टि से इन कृत्यों को करना ही चाहिए । इस प्रकार निष्काम कर्म-योग की दृष्टि से कार्यों का सम्पादन प्रभाकर को अभीष्ट है। प्रतीत होता है, कि प्रभाकर के मत पर गीता के कर्म-योग का स्पष्ट प्रभाव है। कर्म के तीन भेद :
___ मीमांसा-दर्शन में कर्म के तीन भेद हैं-काम्य, प्रतिषिद्ध और नित्यनैमित्तिक । काम्य-कर्म का अर्थ है-किसी कामना विशेष के लिए किया जाने वाला कर्म । जैसे-'स्वर्ग कामो यजेत' । प्रतिषिद्ध का अर्थ है-अनर्थ उत्पादक होने से निषिद्ध । जैसे-“कलर्ज न भक्षयेत्" अर्थात् विष-दग्धशस्त्र से मारे हुए पशु का मांस नहीं खाना चाहिए। नित्य-नैमित्तिक का अर्थ है-अहेतुक कर्म । जैसे-संध्या-वन्दन नित्य कर्म है, और अवसर विशेष पर अनुष्ठेय श्राद्ध आदि कर्म नैमित्तिक है। अनुष्ठान करते ही फल की निष्पत्ति शीघ्र नहीं होती, पर कालान्तर में अवश्य होती है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि फल काल में कर्म के अभाव में वह फलोत्पादक किस प्रकार होता है । मीमांसक दार्शनिकों का कहना है, कि अपूर्व के द्वारा। मीमांसा-दर्शन के अनुसार प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्यापुण्य) उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । कर्म से होता है-अपूर्व, और अपूर्व से होता है-फल । यही कारण है, कि मीमांसा-दर्शन में कर्म और कर्म-फल के मध्य में अपूर्व को माना है। शायद इसी कारण प्राचीन मीमांसा-दर्शन ईश्वरवादी नहीं था।
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