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________________ ११६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय क्रिया के साथ ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । एकान्त क्रिया और एकान्त ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । बौद्ध-परम्परा में हीनयान क्रिया पर विशेष बल देता है, तो महायान ज्ञान पर विशेष बल देता है । इस प्रकार हम देखते हैं, कि सांख्य-दर्शन और योग-दर्शन ने एक दूसरे को पूर्ति करके जीवन-साधना का मार्ग प्रशस्त किया है। सांख्य-दर्शन का ज्ञानी, जीवन की जिस चरम स्थिति पर पहुँचता है, योग-दर्शन का योगी भी अपनी योग-साधना के द्वारा चरम स्थिति पर पहुँच सकता है। मीमांसा-दर्शन का कर्मवाद : ___ मीमांसा-दर्शन मुख्य रूप में कमं की मीमांसा करता है। कर्म का अर्थ है-यज्ञ एवं याग आदि अनुष्ठान । मीमांसा-दर्शन का प्रधान उद्देश्य धर्म की व्याख्या करना है। जैमिनि ने धर्म का लक्षण किया है-"चोदनालक्षणो अर्थः धर्मः-चोदना के द्वारा परिलक्षित अर्थ धर्म कहा जाता है।" चोदना का अर्थ है-क्रिया का प्रवर्तक वचन अथवा वेद का विधि वाक्य । चोदना भूत, भविष्य एवं वर्तमान तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों को बतलाने में इतना समर्थ है, उतना सामर्थ्य न इन्द्रियों में है और न किसी अन्य पदार्थ में । मीमांसकों की विचारणा में श्रुति का तात्पर्य क्रियापरक ही है । मीमांसा-दर्शन की यह दृढ़ मान्यता है, कि विधि का प्रतिपादन ही वेदवाक्यों का मुख्य तात्पर्य है। इसका अर्थ यह होता है, कि ज्ञान का प्रतिपादन करने वाले वाक्य क्रिया की स्तुति अथवा निषेध प्रतिपादन करने के कारण परम्परा से क्रिया परक ही हैं। मोमांसा-दर्शन में इसको अर्थवाद कहा जाता है । अतः किसी प्रयोजन के उद्देश्य से वेद के द्वारा विहित यज्ञ एवं याग आदि अर्थ धर्म कहा जाता है। इन अर्थों के विधिवत् अनुष्ठान करने से पुरुषों को निश्रेयस की-दुःखों को निवृत्त करने वाले स्वर्ग कीउपलब्धि होती है। जैसे "स्वगंकामो यजेत्'-स्वर्ग की कामना वाला पुरुष यज्ञ करे, इस वाक्य में यजेत क्रिया पद के द्वारा भावना की उत्पत्ति मानो जाती है । मीमांसा-दर्शन का यह मुख्य विषय है। - वेद-विहित कर्मों के फलों के विषय में मीमांसक-दार्शनिकों में दो मत दृष्टिगोचर होते हैं । मीमांसा-दर्शन के अनुसार दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य का मुख्य लक्ष्य माना गया है। मनुष्यों की कर्म विशेष के अनुष्ठान में प्रवृत्ति तभी होती है, जब उससे किसी इष्ट एवं अभिलषित पदार्थ के सिद्ध होने का ज्ञान उन्हें होता है । अतः कुमारिल की दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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