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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ११३ में स्थित हो जाता हूँ। वास्तव में योग में मुख्य बात मानसिक अनुशासन है। इसके अभाव में योग की साधना नहीं हो सकती। समाधि के प्रकार :
व्यास ने योग को समाधि कहा है, और उसे चित्त का सार्वभौम धर्म बताया है । व्यास ने यह भी कहा है, कि क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त भूमियो योग के अनुकूल नहीं हैं। एकान और निरुद्ध ये दो भूमियां ही योग के अनुकूल हैं । समाधि दो प्रकार की होती है-संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात । संप्रज्ञात समाधि में वस्तु का सत्य स्वरूप प्रकाशित होता है। उसमें क्लेशों का क्षय हो जाता है। धर्म और अधर्म के बन्धन जो कि संसार से बांधने वाले हैं, ढीले पड़ जाते हैं। उस स्थिति में चित्त निरोध के योग्य हो जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्तियों का आत्यन्तिक निरोध हो जाता है । सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि भी कहते हैं, क्योंकि उसमें चित्त एक वस्तु पर केन्द्रित रहता है, जिसके साथ उसकी समापत्ति (तादात्म्य रहती है । असम्प्रज्ञात समाधि निर्बीज समाधि कही जाती है, क्योंकि उसमें किसी वस्तु का निर्भास नहीं रहता है, बल्कि सब चित्तवृत्तियाँ और उसके संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं । यह समाधि के मूल भेद हैं। संप्रज्ञात समाधि के भेद :
___ संप्रज्ञात समाधि के छह भेद होते हैं-~-सवितर्क समाधि वह समाधि है, जिसमें स्थूल अर्थ के साथ-साथ उसके नाम और ज्ञान की भी चेतना रहती है । इस अवस्था में अर्थ की शुद्ध चेतना नहीं होती, बल्कि नाम और ज्ञान से युक्त अर्थ की चेतना होती है । यद्यपि अर्थ नाम और ज्ञान से सर्वथा पृथक् होता है । इसमें समाधि में प्रज्ञा शब्दार्थ ज्ञानानन्दविद्ध रहती है । दूसरी निर्वितर्क समाधि में चित्त की शब्द और ज्ञान से विमुक्त स्थूल अर्थ से समापत्ति रहती है। यह अर्थ मात्र निर्भास होती है। अर्थात् यह अर्थ के नाम के स्मरण से शून्य होती है । इसमें ज्ञान का भी बोध हो जाता है। यह अवस्था सब विकल्पों से शून्य होती है। तीसरी सविचार समाधि में चित्त की सूक्ष्म तन्मात्राओं में से किसी एक के साथ समापत्ति रहती है और साथ ही उसके देश, काल, कारणता और व्यक्त गुणों की भी प्रतीति रहती है । इन सब का ज्ञान एक ही साथ होता है। चतुर्थ निर्विचार समाधि में चित्त की शुद्ध तन्मात्रा से समापत्ति रहती है, उसके अतीत, अनागत और
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