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________________ भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ६७ रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि अनेक गुण धर्मों का विभाजन करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि कोई भी नय उसका विभाजन करके रूपवान घट एवं रसवान घट आदि रूप में उसे अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है । एक बात ध्यान में रखने की है, कि प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञान ही हैं । जब ज्ञाता की अखण्ड के ग्रहण की दृष्टि होती है, तब उसका ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाण से गृहीत वस्तु को खण्ड रूप में ग्रहण करने का अभिप्राय होता है, तब वह अभिप्राय नय कहा जाता है । प्रमाण ज्ञान नय की उत्पत्ति के लिए भूमि तैयार करता है, और सभी नय मिलकर अनेकान्तवाद की उत्पत्ति के लिए भूमि तैयार करते हैं । यहाँ पर यह प्रश्न उठता है, कि नय प्रमाण है अथवा अप्रमाण ? इसका समाधान किया गया है, कि जैसे सागर और उसकी तरंग हैं, और तरंग को न हम सागर कह सकते हैं, और न असागर ही । ठीक इसी प्रकार हम प्रमाण और नय के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। प्रमाण सागर है, और नय उसका तरंग । नय को न प्रमाण ही कहा जा सकता है, और न अप्रमाण ही । किन्तु प्रमाण का एक अंश कहने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं है ।" नय के भेद : मुख्य रूप से नय के दो भेद किये जा सकते हैं सुनय और दुर्नय । यद्यपि अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अन्त अर्थात् धर्मों को विलय करने वाले अभिप्राय विशेष प्रमाण की ही सन्तान हैं, पर इनमें यदि समन्वय, परस्पर प्रीति और अपेक्षा है, तो यह सुनय है, अन्यथा दुर्नय । सुनय अनेकान्तात्मक वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भी अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता, उनकी ओर तटस्थ भाव रखता है । जैसे पिता की सम्पत्ति में सभी पुत्रों का समान अधिकार होता है. ओर सपूत वही कहा जाता है, जो अपने अन्य बन्धुओं के अधिकार को प्रामाणिकता के साथ स्वीकार करता है, और दूसरे के अधिकार को हथियाने की चेष्टा नहीं करता, वैसे ही अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सभी नयों का समान अधिकार है । पर सुनय वही कहा जायगा, जो अपने अंश को मुख्य रूप से ग्रहण करके भी अन्य के अंश को गौण तो करे पर उसका निराकरण १ जैन- दर्शन, पृ. ४७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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