SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९५ आचार मीमांसा अजीव को नहीं जान पाता, वह चारित्र का परिपालन कैसे कर सकता है ? श्रुत ज्ञान से ही पदार्थों का परिज्ञान हो सकता है। अतः संयम के पालन के लिए श्रुत ज्ञान का होना परम आवश्यक माना गया है। संसार क्या है ? मोक्ष क्या है ? बन्ध, आम्रव, संवर तथा निर्जरा क्या है ? यह बोध भी श्रुत के द्वारा ही होता है। सम्यकुचारित्र : सम्यक्चारित्र का प्रारम्भ पञ्चम गुणस्थान से होता है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । परन्तु सम्यक् चारित्र नहीं होता । अतः श्रावक के दो भेद हैं- व्रती और अव्रती । जिसके किसी प्रकार का व्रत न हो, वह अव्रती होता है। जिसके किसी प्रकार का व्रत हो, वह व्रती होता है। श्रावक को देशव्रती अथवा अणुव्रती कहा गया है। व्रती कौन हो सकता है ? जिसके किसी प्रकार का शल्य न हो । शल्य के तीन प्रकार हैंमाया, निदान और मिथ्यात्व | जैसे पैर में काँटा लग जाने पर मनुष्य यात्रा नहीं कर सकता है, वैसे ही साधक तीन शल्यों के कारण संयम की साधना नहीं कर सकता । अतः व्रती को शल्य - शून्य होना चाहिए । श्रावक के भेद : श्रावक के तीन भेद होते हैं-सम्यग्दृष्टि, द्वादश व्रती और प्रतिमा धारक । दिगम्बर परंपरा में श्रावक के अन्य प्रकार से भी तीन भेद होते हैं- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । पाक्षिक वह होता है, जो श्रावक के द्वादश व्रतों का निर्दोष पालन करता है। नैष्ठिक वह कहा जाता है, जो श्रावक की एकादश प्रतिमाओं की निर्दोष एवं यथाविधि आराधना करता है। साधक वह होता है, जो आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके जीवन और मरण में निराकांक्ष होकर, जीवन के अन्त में सल्लेखना व्रत की सम्यक् साधना करता है। एक अन्य आचार्य के अनुसार श्रावक वह होता है, जिसमें तीन गुण अवश्य हों। तीन गुण इस प्रकार हैं - श्रद्धा, विवेक और कर्तव्य पालन । श्रावक विवेक-शील होता है। आचार का आधार जैन आचार कर्मवाद पर आधारित है। कर्मवाद का आधार, आत्मवाद है। आत्मवाद का प्राण तत्व है- अहिंसा, अपरिग्रह और अनाग्रह अर्थात् अनेकान्त । जैन परम्परा के आचार - शास्त्र में, चारित्र - विकास की अनेक पद्धतियाँ तथा अनेक अवस्थाएँ हैं । आत्म-विकास की अर्थात् आत्म- गुणों के विकास की अवस्थाओं को गुणस्थान कहा गया है । गुणस्थानों का निरूपण और उनका क्रमिक विकास, मोह-शक्ति की प्रबलता तथा क्षीणता के आधार पर किया गया है। योगमूलक दृष्टि से भी आचार पर विचार किया गया है । अतः कर्म, अध्यात्म और योग- इन तीनों के आधार पर जैन आचार की व्याख्या की जाती है। कर्म, गुणस्थान और योग- इन पर आचार का प्रासाद खड़ा हुआ है । आचार एक होने पर भी उसका पालन करने वाले व्यक्ति दो हैं - श्रावक और श्रमण। अतः आचार दो प्रकार का है-श्रावकाचार तथा श्रमणाचार । सागार धर्म तथा अनगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy