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2. प्रमाण
८. प्रमाण और तर्क
भारतीय न्याय-शास्त्र में प्रमाण और तर्क दोनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। लेकिन पाश्चात्य दर्शन में दोनों के अर्थ में कुछ भिन्नता भी है। प्रमाण-शास्त्र (Epistemology) ज्ञान और सत्य का शास्त्र है। उसकी समस्याएं किसी भी ज्ञान की प्रक्रिया में मूलभूत समस्याएं हैं। प्रमाण-शास्त्र किसी भी प्रकार के ज्ञान को मौलिक आधार प्रदान करता है। प्रमाण-शास्त्र में यह प्रश्न उठाया गया है, कि क्या ज्ञेय, ज्ञाता से पृथक होता है, अथवा दोनों ही परस्पर संबन्धित हैं। प्रमाण-शास्त्र ज्ञान के विभिन्न साधनों पर तर्क-पूर्ण विचार करता है।
तर्क-शास्त्र (Logic) चिन्तन की विधियों अथवा निहित अर्थों का पता लगाने का विज्ञान है। वह विचार की संरचना का अध्ययन करता है। विचार क्या है? जगत से उसका क्या सम्बन्ध है? मन किसी समस्या को किस प्रकार से सुलझाता है ? चिन्तन की स्वाभाविक विधि क्या है? परिभाषा, परिकल्पना, विभाजन और व्याख्या आदि क्या हैं? किसी वाक्य से क्या-क्या अर्थ और किस प्रकार निकाला जा सकता है। ये सब तर्क-शास्त्र की समस्याएं हैं। प्रमाण-शास्त्र के समान ही तर्क-शास्त्र भी भली प्रकार से ज्ञान की प्राप्ति में मौलिक नियम भी प्रदान करता है, क्योंकि किसी भी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति में चिन्तन की आवश्यकता होती है, और चिन्तन की शुद्धि तथा अशुद्धि पर तर्क-शास्त्र विचार करता है। तर्क से बुद्धि का विकास होता है। तर्क से मनुष्य अनेक दोषों से बच जाता है। पदार्थ क्या है? कैसा है ? क्यों है ? अन्यथा क्यों नहीं हो सकता? इनका समाधान तर्क से होता है।
न्याय-शास्त्र पाश्चात्य विद्वान् जिसको तर्कशास्त्र कहते हैं, जिसको (Logic)कहते हैं, उसको भारतीय विद्वान् न्याय-शास्त्र, प्रमाण-शास्त्र कहते हैं। वस्तुतः अनुमान प्रमाण ही न्याय अथवा तर्क कहा जाता है। न्याय दर्शन में तर्क भी न्याय का ही एक अंग माना गया है। न्याय-शास्त्र तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानता। जैन न्याय में अवश्य ही तर्क को पाँच परोक्ष प्रमाणों में एक स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है। भारतीय नैयायिकों ने अनुमान को प्रमाण स्वीकार किया है। बृहस्पति के अनुयायियों ने केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण कहा है, अनुमान को प्रमाण नहीं माना। वैदिक, जैन और बौद्ध, सभी ने इसको प्रमाण माना है, और प्रत्येक सम्प्रदाय ने अपने-अपने ढंग से अनुमान की विशद व्याख्या भी की है।
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