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________________ ५. ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का एक निज गुण है। ज्ञान आत्मा का एक स्वभाव है। निज गुण अथवा स्वभाव उसे कहा जाता है, जो सदाकाल अपने गुणी के साथ रहता है। आत्मा को छोड़कर ज्ञान अन्यत्र कहीं नहीं रहता और आत्मा भी ज्ञान से शून्य कभी नहीं रहता। इस आधार पर यह कहा जाता है कि आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है। आत्म-स्वरूप की जितनी भी चर्चा और वर्णन किया जाता है, उसका मूल केन्द्र ज्ञान है। आत्मा क्या है और उसका क्या स्वरूप है ? उक्त प्रश्नों का समाधान ज्ञान से ही होता है। चेतना आत्मा की एक शक्ति है, जो आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ में उपलब्ध नहीं होती। आत्मा की स्थिति और सत्ता अनन्तकाल से है, इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है। आत्मा अनन्त गुणों का निधि है, उसमें प्रमेयत्व एवं ज्ञेयत्व आदि सामान्य एवं विशेष अनन्त गुण हैं। उन सबकी जानकारी एवं उन सब गुणों का पता ज्ञान के द्वारा ही लगता है। अतः ज्ञान आत्मा का एक विशिष्ट गुण है। विशिष्ट गुण भी क्या है ? वह उसका स्व-स्वरूप और निज स्वभाव ही है। अब प्रश्न यह उठता है, कि आत्मा का जो यह ज्ञान गुण है, जिससे सब कुछ का ज्ञान और पता लगता है, उस ज्ञान गुण की स्थिति और सत्ता का बोध किस प्रकार होता है ? आत्मा के दूसरे गुणों को तो ज्ञान जान सकता है, परन्तु स्वयं ज्ञान को कैसे जाना जाए ? ज्ञान दूसरों की जानकारी तो प्राप्त कर लेता है, परन्तु ज्ञान की जानकारी किससे होती है ? प्रश्न का अभिप्राय यह है, कि ज्ञान कभी ज्ञेय बनता है कि नहीं ? जिस शक्ति के द्वारा आत्मा को वस्तुओं के स्वरूप आदि का बोध होता है, आत्मा की उस शक्ति का नाम ज्ञान है । ज्ञेय वह है, जिसे ज्ञान की शक्ति से जाना जाता है । ज्ञाता वह है, जो ज्ञान प्राप्त करता है। अतः जिसके द्वारा बोध होता है, वह ज्ञान है। जिसे बोध होता है वह ज्ञाता है । और जिसका बोध होता है, वह ज्ञेय है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि ज्ञान का विषय होने से ज्ञाता आत्मा और उसके दूसरे गुण भी ज्ञेय हैं। उनकी विभिन्न पर्याय भी ज्ञेय हैं, क्योंकि वे भी ज्ञान में प्रतिबिम्बित होती हैं। हमारा ज्ञान सीमित होता है, परन्तु केवलज्ञानी का ज्ञान असीम और अनन्त होता है। उनके अनन्त ज्ञान में समस्त पदार्थ और एक एक पदार्थ के अनन्त - अनन्त गुण तथा पर्याय प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होती रहती हैं। विश्व का एक भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो केवलज्ञान का ज्ञेय न बनता हो । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि आत्मा अपनी जिस शक्ति से पदार्थों का बोध करता है, उसे ज्ञान कहा जाता है। वह ज्ञान केवल दूसरों को ही जानता है अथवा अपने आपको भी जान सकता है ? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है, दर्शनशास्त्र का । ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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