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________________ १६० अध्यात्म-प्रवचन, का उपजीवक बना दिया। यही था मनु का अपना मौलिक नवीन चिन्तन। उस युग में मनु के आचार एवं विचार का खुलकर स्वागत हुआ। वर्णधर्म और आश्रमधर्म-स्मृतियों का . मुख्य विषय रहा है। हिन्दू समाज के लिए ये धर्म-शास्त्र ही नहीं है, अपितु विधि ग्रन्थ भी हैं। अंग्रेजी शासन काल में इसी को हिन्दू लॉ,धर्म कहा गया था। भारतीय आचार परम्परा के ये प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। स्मृति रचना काल आचार-शास्त्र और धर्म-शास्त्र के मूलभूत तत्त्वों की व्याख्या एवं परिभाषा करने वाले स्मृति ग्रन्थों की संरचना किस काल में प्रारम्भ हुई और किस काल में परिसमाप्त हुई इसका निर्णय करना आसान नहीं है। भारतीय धर्मशास्त्रों का इतिहास जिन्होंने लिखा है, उनके अनुसार स्मृति ग्रन्थों के निर्माण को तीन युगों में विभाजित किया गया है-प्रथम युग-ईसा पूर्व ६०० से १00 तक। द्वितीय युग-ईसा १00 से ८00 तक और तृतीय युग ईसा ९०० से १८00 तक। प्रथम युग धर्म-सूत्रों का है, जो स्मृतियों का मूल स्रोत हैं। द्वितीय युग धर्मसूत्रों की व्याख्या का है और साथ ही स्मृतियों के निर्माण का प्रारम्भ भी। इतिहासकारों की दृष्टि में शुंग युग ही स्मृति निर्माण का युग है। “धर्मशास्त्र का इतिहास" पुस्तक के लेखक बी. पी. काणे का मत है, कि मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति से बहुत प्राचीन है क्योंकि मनुस्मृति में न्याय सम्बन्धी बातें पूर्ण रूप से नहीं हैं, लेकिन याज्ञवल्क्य स्मृति में ये सब बातें पूर्ण रूप में हैं। याज्ञवल्क्य की तिथि कम से कम तृतीय शताब्दी है। अतः मनुस्मृति को उनसे बहुत पहले होना चाहिए। मनुस्मृति की रचना ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी तथा ईसा के उपरान्त द्वितीय शताब्दी के मध्य कभी हुई होगी। महाभारत मनुस्मृति के बाद की रचना है। मनु और याज्ञवल्क्य ____मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति में काफी समानता है। फिर भी याज्ञवल्क्य मनु की बहुत-सी बातों को स्वीकार नहीं करते। विभिन्नता इस प्रकार है-मनु ब्राह्मण को शूद्र कन्या से विवाह करने का विधान करते हैं, परन्तु याज्ञवल्क्य नहीं करते। मनु पुत्रहीन पुरुष की विधवा पत्नी के दायभाग पर मौन हैं, याज्ञवल्क्य इस विषय में स्पष्ट हैं। विधवा को उसका हक दिलाते हैं। मनु जुआ की निन्दा करते हैं, याज्ञवल्क्य जुआ को राज्य नियन्त्रण में रखकर राजकीय कर का एक हिस्सा बना देते हैं। इस प्रकार मनु के और याज्ञवल्क्य के आचार में काफी अन्तर है। वेद धर्म का मूल है-“वेदो धर्मस्य मूलम् ।" यह कथन गौतमसूत्र का है। मनुस्मृति में धर्म के पाँच उपादान हैं-वेद, वेदज्ञों की परम्परा एवं व्यवहार, साधुजनों का आचार और आत्म तुष्टि। याज्ञवल्क्य का कथन है कि वेद, स्मृति, सदाचार, शिष्टजनों का आचारव्यवहार और जो अपने को अच्छा लगे तथा शुभ संकल्प-यही धर्म के उपादान हैं, जो परम्परा से चले आ रहे हैं। इस प्रकार धर्म के विषय में मनु और याज्ञवल्क्य के विचार एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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