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१५६ अध्यात्म-प्रवचन
यदि भय और प्रलोभन से ही कोई मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसमें नैतिकता का प्रश्न नहीं उठता। हमारे आचरण केवल दण्ड के डर और पुरस्कार के प्रलोभनों से यदि संचालित हों, तो उन्हें अच्छा या खराब कैसे कहा जा सकता है ? उन कर्मों से तो हमारे वास्तविक स्वरूप का पता नहीं चलता।
धर्म या सत्य ईश्वर की आज्ञाओं पर निर्भर नहीं है, अपितु उनकी प्रकृति के द्योतक हैं। ईश्वर अपनी इच्छानुसार किसी कार्य को सत्य या असत्य नहीं बना सकता। कोई कर्म इसलिए सत्य या असत्य नहीं होता कि वैसी ईश्वर की इच्छा होती है, अपितु वह किसी कर्म का आदेश देता है, इसलिए कि वह सत्य है और निषेध करता है, इसलिए कि वह असत्य या अधर्म है।
यदि धर्मशास्त्र को आचारशास्त्र का सूत्र माना जाय तो बिना ईश्वर के विश्वास के नीति का भी लोप माना जाता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। बौद्ध मत और जैन मत इसके उदाहरण हैं।
इसके विपरीत कुछ दार्शनिकों का मत है कि धर्मशास्त्र का आधार आचार-शास्त्र है, क्योंकि धर्म का आधार है नीति (morality)। हममें यह विश्वास है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का बुरा। पर वास्तविक जगत में ऐसा नहीं पाया जाता। बुरे ही अधिकतर सुख भोगते हैं और सदाचारी कष्टों के शिकार बनते हैं। इसलिए इस भेद के कारण हममें यह विश्वास उत्पन्न होता है कि कोई शक्तिशाली ईश्वर का अस्तित्व है, जो इन विषमताओं को दूर करता है और सदाचारियों को पुरस्कार देता है और दुराचारियों को कष्ट। यही विश्वास धर्म की नींव है-कान्ट, मार्टिन्यु (Kant, Martineau) इत्यादि।
दूसरे, मनुष्य नैतिक नियमों का पालन करना अपना कर्तव्य समझता है। किसी सत्ता के प्रति ही कोई कर्तव्य होता है। यह सत्ता कौन है ? इसके फलस्वरूप ईश्वर में हमारा विश्वास होने लगता है।
तीसरे, आचारशास्त्र में चरित्र का आदर्श निर्धारित किया जाता है। यह आदर्श केवल सैद्धान्तिक नहीं माना जाता। इसलिए एक ऐसी शक्ति को हम मानते हैं, जो उन आदर्शों से सम्पूर्ण है।
इन्हीं कारणों से कहा गया है कि नैतिक विचारों से ही ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास उत्पन्न होता है। किसी न किसी रूप में धर्म हर देश और काल में रहता है, चाहे वहाँ नैतिक विचार हों या नहीं हों। इसके अलावा, धार्मिक विचार मनुष्यों की अपूर्णता के भाव से उदय होते हैं। मनुष्य अपने को अपूर्ण पाकर एक ऐसी सत्ता में विश्वास करने लगता है, जो सर्वशक्तिमान है। नैतिक विचारों का उदय मानवआत्मा की पूर्णता की भावना से होता है। दोनों के दो सूत्र होते हैं। एक के बिना दूसरे का विचार किया जा सकता है। कोई बिना धार्मिक विचारों के भी नैतिक नियमों का पालन कर सकता है और बिना नैतिक विचारों For Private & Personal Use Only
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