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________________ १५० अध्यात्म-प्रवचन परिचय दिया था। उनके अनुसार सामाजिक प्रक्रिया समूह में स्थित व्यक्तियों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम है। सबसे बड़ी बात बाह्य सकत या निर्देश की भी है। मनोवैज्ञानिकों ने बाह्य संकेतों की भी प्रक्रिया का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बाह्य संकेतों का सामाजिक आचरण में स्थान है। जन-जीवन में शब्दों के रूप में बाह्य संकतों का क्या प्रभाव पड़ता है, यह विभिन्न राजनैतिक दलों के नारों से प्रमाणित हो जाता है। जैसे-धन और धरती बँट के रहेंगे, कमाने वाला खाएगा और लूटने वाला जायेगा-ये समाजवादी नारे हैं। कम्युनिस्टों का नारा इस प्रकार का होता है-'दुनियाँ के मजूदरो एक हो जाओ, तुम्हें कुछ खोना नहीं है, अपने बन्धनों से ही मुक्त होना है।' इस प्रकार के नारे अथवा शब्दावली मनुष्य के मन पर निश्चित रूप से प्रभाव डालती है। अतः बाह्य संकेत और निर्देशन का हमारे आचार में एक विशेष महत्त्व है। सामाजिक नियन्त्रण में धर्म का स्थान युग के प्रारम्भ से ही धर्म ने मानव के वैयक्तिक एवं सामाजिक आचार का किसी न किसी रूप में नियन्त्रण किया है। जिन सिद्धान्तों का पालन अधिकांश लोग अपने दैनिक जीवन में करते हैं, उनका विधान उसके द्वारा होता है, जिसे धर्म कहते हैं। प्रत्येक धर्म कुछ इस प्रकार के विश्वासों को उपस्थित करता है, जो हमारी भावना एवं आस्था के नियम बन जाते हैं। ये विश्वास हमारी आस्था का नियमन करते हैं और विविध व्यवहारों को जन्म देते हैं। इन्हीं विश्वासों के आधार पर रीति एवं नीति तथा आचारों का विकास होता है, जिन्हें धर्म का समर्थन प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार से धर्म का प्रयोजन न केवल मनुष्य को ईश्वर से बाँधना रह जाता है, बल्कि व्यक्ति और समाज का धारण भी हो जाता है। सामाजिक व्यवस्था संस्था, वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के लिए सिद्धान्तों का विधान प्रायः प्रत्येक धर्म-हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम के महत्वपूर्ण अंग हैं। जहाँ तक धर्म और आचार का सम्बन्ध है, प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इसका एक महत्त्व है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। पर आचार और धर्म एक वस्तु है और सम्प्रदाय एक भिन्न वस्तु है। सम्प्रदाय और धर्म को एक मानने के भयंकर परिणामों से प्रत्येक व्यक्ति भलीभाँति परिचित है, किन्तु धर्म की सत्ता या महत्ता को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्यादि धर्म में ही है। परन्तु इस समय धर्म का वह उज्ज्वल रूप दृष्टिगोचर नहीं होता। आज तो मनुष्य अपने धर्म की अपेक्षा अपने सम्प्रदाय को अधिक महत्त्व देता है। यही कारण है कि धर्म के नाम पर अनेक संघर्ष आज खड़े होते जा रहे हैं। जीवन और आचार मनुष्य के विकास के लिए धर्म एक संजीवनी है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। किन्तु धर्म की परिभाषा एवं व्याख्या करना उतना सरल व सहज नहीं है, फिर भी कुछ नियम इस प्रकार के हैं जिनको धर्म की संज्ञा प्रदान की जा सकती है। जैन परम्परा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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