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________________ १३२ अध्यात्म-प्रवचन (ब) कुटुम्ब जागरण-परिवार और परिजन के प्रति मेरा जो कर्तव्य कर्म है, उसका मैं भली भाँति पालन-अनुपालन करता हूँ, कि नहीं। परिवार का भरण, पोषण एवं शिक्षण आदि कराना, मेरा परम कर्तव्य कर्म है। (स) राष्ट्र जागरण-यह राष्ट्र मेरी जन्म भूमि है, मेरी पितृ-भूमि है, मातृ-भूमि है। इसके अन्न-जल पर ही मेरा जीवन टिका है। इसकी रक्षा करना, इसका गौरव बढ़ाना मेरा परम कर्तव्य है। इसकी स्वतन्त्रता में, मेरी स्वतन्त्रता है। ५. रात्रि वेला में, इतना करने के बाद में सब बिकल्पों को छोड़ कर, सब चिन्ताओं को दूर कर शयन करे, निद्राधीन हो जाए। षड् आवश्यक: ___ अवश्यमेव करणीय कर्म को अर्थात् क्रिया को आवश्यक कहा गया है। चार मूल सूत्रों में से, एक आवश्यक सूत्र भी है, जिसमें षड् आवश्यक करने का विधान किया गया है। श्रावक और श्रमण-दोनों को उभयवेला में यह करना चाहिए। श्रमण के लिए तो यह अनिवार्य है, व्रती श्रावक के लिए भी आवश्यक है। संक्षेप में इसको प्रतिक्रमण कहा जाता है। प्रतिक्रमण षड् आवश्यकों में से एक आवश्यक होता है। श्रावक एवं श्रमण की दिनचर्या का अनिवार्य अंग माना गया है। सूत्रों में षड् आवश्यक का कथन इस प्रकार है१. सामायिक २. चतुर्विंशति स्तवन ३. वन्दन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान समत्व-भाव की साधना को सामायिक कहा गया है। इससे चित्त शान्त, प्रशान्त एवं उपशान्त रहता है। तीर्थंकरों की स्तुति को स्तवन कहते हैं। तीर्थंकर धर्म के संस्थापक होते हैं। पथ के आलोक होते हैं। जीवन के कल्याणकर होते हैं। धर्म के उपदेष्टा हैं। वन्दन को भी एक आवश्यक माना गया है। वन्दन गुरु को किया जाता है। क्योंकि वह साधना मार्ग का उपदेशक है। जीवन में, अज्ञान से एवं प्रमाद से लगने वाले दोषों की आलोचना को प्रतिक्रमण कहा गया है। अशुभ से शुभ में लौटने को प्रतिक्रमण कहते हैं। यह अतिचारों का प्रायश्चित्त है। कायोत्सर्ग ध्यान है। प्रत्याख्यान एक प्रकार का त्याग है। उसके दश भेद हैं। प्रतिक्रमण पाँच हैं १. दैवसिक प्रतिक्रमण २. रात्रिक प्रतिक्रमण ३. पाक्षिक प्रतिक्रमण ४. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण ५. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण श्रावक के प्रतिदिन के नियम भारत के समस्त धर्मों में अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप, अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार, मनुष्य के कल्याण, विकास तथा अभ्युत्थान के लिए यम, नियम और संयम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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