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________________ एकादश प्रतिमा : उपासक की उच्चतर साधना १२९ १0. पूर्व प्रतिमाओं का पालन करते हुए उपासक अपने उद्देश्य से तैयार किए हुए भोजन का जो त्याग करता है, वह उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा है। इसमें सिर का मुण्डन होता है, अथवा शिखा भर बाल रख लेता है। किसी विषय में पूछने पर वह यदि जानता है, तो कहता है, कि मैं जानता हूँ। यदि नहीं जानता है, तो कहता है, कि मैं नहीं जानता। वह संसार के प्रपञ्चों से दूर रहता है। ११. श्रमणभूत प्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक सिर के बालों का लोच करता है, अथवा क्षुर-मुण्ड करा लेता है। श्रमण वेष को धारण करता है। श्रमण के जैसे ही उपकरण रखता है। कठोर तप त्याग और संयम का पालन करते हुए श्रमण जीवन व्यतीत करता है। अतः श्रमणभूत श्रमण कल्प और श्रमण सदृश कहा जाता है। यह अन्तिम प्रतिमा है। श्रावक के जीवन का आदर्श : श्रावक तथा उपासक के जीवन का आदर्श श्रमण है। श्रमण के मार्ग का अनुगमन, अनुसरण, अनुचरण और अनुकरण-श्रावक के जीवन का एक उच्च आदर्श है। क्योंकि श्रमण त्याग, वैराग्य और तप के मार्ग पर चलने वाला एक महान् साधक है। श्रमण का आचार है-पञ्च महाव्रत, पच्चीस महाव्रत की भावना। पञ्च समिति एवं तीन गुप्ति। दशविध यतिधर्म, षड् आवश्यक, द्विविंशति परीषह जय, चार कषाय जय। द्वादश विध तप, द्वादश भावना और पञ्च चारित्र। पञ्च प्रकार का आचार। शान्ति और समाधि। श्रावक का आचार है-सम्यक्त्व, पञ्च अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षा व्रत। जीवन की उच्चतर साधना एकादश प्रतिमा। श्रमण की भाँति उभय काल षड् आवश्यक। अतः श्रावक का जीवन भी तपोमय एवं त्यागमय होता है। जैन आचार दो भागों में विभक्त है-श्रमणाचार और श्रावकाचार। आचार में अन्तर नहीं है, लेकिन पालन करने वाले की शक्ति, क्षमता और योग्यता को ध्यान में रख कर, उसका विभाजन किया गया है। साधु की अपनी सीमा है, उपासक की अपनी मर्यादा है। लक्ष्य दोनों का एक ही है-परम आनन्द रूप मोक्ष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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