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________________ १२८ अध्यात्म-प्रवचन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है, यह व्रत प्रतिमा है। इसकी साधना करने से श्रावक अनेक गुणों का विकास करता है। ३. सामायिक प्रतिमा - दर्शन और व्रतों की साधना करते हुए उपासक सामायिक व्रत की विशेष साधना प्रारम्भ करता है। सूर्योदय की वेला में, मध्य वेला में और सूर्यास्त वेला में, अर्थात् त्रि-सन्ध सामायिक करता है। समभाव की साधना करता है । सामायिक व्रत का निरतिचार पालन करता है। तप, जप, पाठ, स्वाध्याय करता है। जीवन में समभाव का निरन्तर आचरण करता है। सामायिक की साधना, वीतराग भाव की साधना कही है। ४. पोषध प्रतिमा-श्रावक यथाशक्ति और यथाकाल तपस्या करता है । किन्तु पोषध रूप तप की साधना विशेष की जाती है। श्रावक पोषधशाला में रहकर पर्व तिथियों पर पोषध ग्रहण करता है। विशेष रूप में मास के दोनों पक्षों में अष्टमी और चतुर्दशी को चार प्रकार के आहार का परित्याग कर देता है । मौन रहकर आत्म-चिन्तन में लीन रहता है। सर्व प्रकार के सावध व्यापारों को छोड़ देता है । ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है। फूल माला एवं मुक्ता-माला आदि आभूषण रूप परिग्रह का परित्याग करता है। पोषध व्रत की साधना अष्ट प्रहर की होती है। इसमें तपोमय जीवन होता है। ५. प्रतिमा- प्रतिमा - जिस उपासक ने पोषध प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से अनुपालन किया है, वह इस प्रतिमा-प्रतिमा को धारण कर सकता है। जो उपासक प्रत्येक अष्टमी एवं चतुर्दशी की रात्रि में प्रतिमा की भाँति स्थिर, अचल और निष्कम्प रहता है, केवल दिन में भोजन करता है, ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करता है, श्रमण के समान चोल पट्टा और चादर के वस्त्र पहनता है, काम भोगों की स्मृति भी नहीं करता। दिन में भी अधिक समय स्थिर आसन में ही व्यतीत करता है, जितकषाय और जितभय जिन भगवान् का ध्यान करता है, अथवा अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करता है, वह पञ्चम प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है। प्रतिमा में प्रतिमा की साधना होने से इसे प्रतिमा- प्रतिमा कहते हैं। ६. अब्रह्म वर्जन प्रतिमा - इस प्रतिमा को धारण करने वाला व्यक्ति रात्रि में भी शृंगार-चर्चा नहीं करता। स्त्रियों से अति परिचय नहीं रखता । शरीर शृंगार एवं विभूषा का परित्याग कर देता है। ७. सचित्त आहार परिवर्जन प्रतिमा- इसमें खाने-पीने की सचित्त वस्तुओं का त्याग होता है। सचित्त पदार्थों का उपभोग परिभोग नहीं करता । ८. स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा- इसमें उपासक स्वयं तो किसी प्रकार आरम्भ नहीं करता, लेकिन आवश्यकता होने पर दूसरों से करा सकता है। ९. पर आरम्भ वर्जन प्रतिमा- इसकी साधना करने वाला साधक उपासक दूसरों से भी आरम्भ नहीं कराता । न करता है, और न कराता है। लेकिन अनुमोदना कर देता है, समर्थन कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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