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________________ श्रावक के चार शिक्षा-व्रत ११७ देशावकाश का एक अर्थ यह भी है, कि देश अर्थात् क्षेत्र का एक अंश और अवकाश अर्थात् स्थान। इस व्रत में जीवन भर के लिए गृहीत दिशा परिमाण अर्थात् क्षेत्र मर्यादा के एक अंश रूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा का निश्चय किया जाता है। अतः इसको देशावकाश व्रत कहते हैं। यह व्रत क्षेत्र मर्यादा को संकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोग रूप अन्य मर्यादाओं को भी संकुचित करता है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जाना, बाहर से किसी को अन्दर न बुलाना, न बाहर किसी को भेजना, क्रय और विक्रय न करना। सावध व्यापारों से अवकाश ग्रहण कर लेना। देशावकाशव्रत के अतिचारः पूर्व वर्णित व्रतों की भाँति देशावकाश व्रत के भी पाँच अतिचार हैं। श्रावक इनको समझ तो लें, परन्तु इनका आचरण न करें। क्योंकि ये तो दोष रूप हैं। वे पाँच अतिचार इस प्रकार हैं १.आनयन प्रयोग २. प्रेषण प्रयोग ३. शब्दानुपात ४. रूपानुपात ५. पुद्गल प्रक्षेप (क) मर्यादा क्षेत्र से बाहर की वस्तु लाना, मंगवाना, आदि क्रिया आनयन प्रयोग है। (ख) मर्यादित क्षेत्र से बाहर वस्तु का भेजना, लेजाना, प्रेषण प्रयोग है। (ग) किसी को मर्यादित क्षेत्र से बाहर खड़ा या बैठा देखकर खाँसी या खकार आदि शब्द संकेत द्वारा, उसे बुलाने की चेष्टा करना। शब्द का अनुपात है। (घ) मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्थित व्यक्ति को बुलाने के लिए हस्त, मुख एवं शीर्ष आदि का संकेत करना, रूप का अनुपात है। (ङ) मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्थित व्यक्ति को बुलाने हेतु कंकर, कागज, वस्त्र आदि फैंकना, पुद्गल का प्रक्षेप कहा जाता है। मनुष्य का जीवन जब अत्यन्त प्रवृत्तिमय बन जाता है, तब उसको शान्ति नहीं मिल पाती। लेकिन जब वह प्रवृत्ति को छोड़ कर निवृत्ति की ओर लौटता है, तब वह शान्ति का अनुभव करने लगता है। वैदिक परम्परा में, जो स्थिति एवं दशा एक वानप्रस्थ की होती है, कुछ वैसी ही स्थिति देशावकाशिक व्रत में होती है। संक्षेप में कह सकते हैं, कि यह भोग से योग की ओर उन्मुख होने की स्थिति है। घर बार के कोलाहल से हट कर, अपने अन्दर झाँकने की यह एक स्थिति विशेष और दशा विशेष है। श्रावक का पोषध व्रत श्रावक के चार शिक्षाव्रतों में पोषध व्रत तृतीय शिक्षा-व्रत है। अन्य व्रतों से यह कठिन व्रत है। क्योंकि इसमें चार प्रकार के आहार का त्याग होता है। चार प्रकार आहार इस प्रकार से हैJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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