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________________ ३. श्रावक के चार शिक्षा-व्रत श्रावक अथवा उपासक के द्वादश व्रतों में पाँच मूल व्रत हैं। तीन गुणव्रत हैं। चार शिक्षाव्रत हैं। अणुव्रत और गुणव्रतों का सम्बन्ध, मनुष्य के सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन से अधिक है। मनुष्य को समाज और राष्ट्र में, इस प्रकार से रहना चाहिए, कि दूसरों के साथ उसका संघर्ष न हो। वह स्वयं भी सुखी और शान्त जीवन व्यतीत कर सके, और दूसरों के सुख और शान्ति में सहयोग एवं सहकार कर सके। लेकिन चार शिक्षाव्रतों में, वह अध्यात्म साधना की ओर विशेष रूप में अग्रसर होता चला जाता है। वह व्यक्तिगत, समाजगत और राष्ट्रगत सम्बन्धों से ऊपर उठकर अध्यात्म साधना में एकाग्र होता है। अगार धर्म से अनगार धर्म की ओर अपनी अन्तर् यात्रा करता है। नीति और धर्म से ऊँचा उठकर, अध्यात्म भाव में रमण करता है। श्रमण धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। अतः चार व्रतों को शिक्षा-व्रत कहा गया है। यह विशेष साधना है। शिक्षाव्रत की परिभाषाः यहाँ पर शिक्षा का क्या अर्थ है? उत्तर में कहा गया है, कि -"शिक्षणं शिक्षा।" अर्थात् सीखने को शिक्षा कहा जाता है। क्या सीखा जाता है ? उत्तर इस प्रकार है"परम-पद-प्राप्ति-साधनीभूता क्रिया।" परम पद अर्थात् मोक्ष, उसको प्राप्त कराने में साधनभूत जो क्रिया अर्थात् साधना। अभिप्राय यह है, मोक्ष की ओर ले जाने वाली साधना ही शिक्षा है। जैन धर्म की साधना का सार है-मोक्ष की प्राप्ति। आत्म-गुणों के विकास की पराकाष्ठा ही मोक्ष है। आत्मा के अनन्त गुणों में से तीन गुण मुख्य हैंसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं, उपाय है, साधन हैं। इन तीनों का चरमोत्कर्ष ही मोक्ष है। उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास का नाम चारित्र है। चारित्र का अर्थ है-जन्म-जन्मान्तरों से संचित कर्म-मल को दूर करने की शक्ति। ज्ञान का अर्थ है-वस्तु तत्व का यथार्थ परिबोध। दर्शन का अर्थ है-दृष्टि। जिसके द्वारा, श्रद्धा और आस्था स्थिर हो, चल-विचल न हो, वह दृष्टि है, दर्शन है। श्रावक जब अपने जीवन का लक्ष्य मोक्ष को बना लेता है, तब वह चार शिक्षा-व्रतों की साधना करता है। श्रायक के चार शिक्षा-व्रत इस प्रकार हैं १.सामायिक व्रत २. देशावकाशिक व्रत ३.पोषध व्रत ४.अतिथि संविभाग व्रत ये चारों शिक्षाव्रत हैं। शिक्षा का अर्थ है-अभ्यास। जिस प्रकार एक छात्र बार-बार विद्या का अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को शिक्षाव्रतों का बार-बार अभ्यास .. ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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