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अध्यात्म-प्रवचन
(ङ) पञ्चम अणुव्रत-इच्छा परिमाण व्रत । स्थूल परिग्रह विरमण रूप व्रत ।
आकाश अनन्त है। उसका आर-पार नहीं है, उसका कहीं पर अन्त नजर नहीं आता । क्षितिज के आर भी आकाश है, और क्षितिज के पार भी आकाश है। अतः उसे अनन्त कहा गया है। प्राणी की इच्छा एवं तृष्णा भी अन्त-हीन है। उसका कहीं अन्त नहीं होता । शैशव, कौमार, यौवन और वार्धक्य में, सर्वत्र परिव्याप्त रहती है। अतः इच्छा एवं तृष्णा को शास्त्रकारों ने अनन्त कहा है। यदि उसका कहीं अन्त हो सकता है, तो सन्तोष में ही हो सकता है । परन्तु सन्तोष की सीमा में प्रवेश करना, बड़ा दुष्कर कार्य है।
श्रावक अपने जीवन में, इच्छाओं का, तृष्णाओं का और परिग्रहों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता । अतः उसका पञ्चम अणुव्रत स्थूल परिग्रह विरमण कहा गया है। वह इच्छाओं का त्याग नहीं कर सकता लेकिन उनका परिमाण कर सकता है। अतः उसका यह व्रत इच्छा परिमाण कहा गया है। क्योंकि परिवार में, परिजन में और समाज में रहकर, इच्छाओं का सर्वथा त्याग संभव नहीं, वह तो श्रमण जीवन में ही संभव हो सकता है । इच्छा-तृप्ति का श्रेष्ठ मार्ग है, इच्छा - नियन्त्रण । इसी को सन्तोष कहा गया है। इच्छामर्यादा अथवा इच्छा - नियन्त्रण का नाम है-इच्छा परिमाण व्रत। यह श्रावक का पञ्चम अणुव्रत है। अनावश्यक संचय तथा संग्रह से तृष्णा बढ़ती है, समाज में विषमता उत्पन्न होती है, संघर्ष खड़े होते हैं । सर्व-नाशी युद्ध होते हैं । अतः शास्त्र में नव प्रकार के परिग्रह कहे हैं१. क्षेत्र
२. वास्तु ३. हिरण्य
नव प्रकार का परिग्रह :
४. सुवर्ण
५. धन
६. धान्य
७. द्विपद
८. चतुष्पद
९. कुष्य ।
१. क्षेत्र - खेत, बाग-बगीचा और गोचर भूमि
२. वास्तु-मकान, दुकान और गोदाम
३. हिरण्य - रजत पात्र, आभूषण और अन्य उपकरण ४. सुवर्ण-स्वर्ण पात्र, आभूषण, सिक्का और मुद्रा
५. धन -- रुपया, रत्न, हीरा और मोती
६. धान्य-गोधूम, यव, चावल, मूँग और तिल ७. द्विपद-नर-नारी, कबूतर, मयूर, सारस एवं हंस
८. चतुष्पद - गाय, बैल, भैंस, हाथी और घोड़ा ९. कुप्य - लोहा, तांबा, कांसा, पीतल और जस्ता ।
श्रावक को इस व्रत में इनका परिमाण करना चाहिए। गाड़ी, मोटर, बग्गी, तांगा,
रेल और रथ आदि सचित्त एवं अचित्त वाहन - यानों का भी समावेश इनमें सुगमता से हो
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