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पर्युषण-प्रवचन
पार कर मार से बात की जानकारी का नाम
सोमवार को न हो । मार तो मार है, वह लगेगी ही, चाहे शनिवार हो या सोमवार ।
लोच का दर्द होता ही है । न तो वह सोमवार से हल्का होता है और न हल्के हाथ से । उसकी अनुभूति न होने देने में एक ही शक्ति कामयाब होती है, वह है अन्तर बल । आत्म-चेतना जागृत रहती है तो लोच सरल लगने लगता है । वेदना तो होती है परन्तु उसका संवेदन नहीं होता, पीड़ा की अनुभूति गौण हो जाती है । मैं बता रहा था, मेरा पहला लोच शुरु हुआ । एक हाथ पड़ा कि दर्द होने लगा; दूसरा, तीसरा, चौथा हाथ पड़ा तो दर्द बढ़ता गया ।
मैं आपको अपने जीवन का अनुभव सुना रहा हूँ । पहले लोच के समय दर्द से व्याकुलता बढ़ने लगी तो लोच करने वाले सद्गुरु के मुँह से गज सुकुमार मुनि की क्षमा का एक गीत-प्रवाह बह निकला । वह क्षमा की मधुर संगीत वायुमण्डल में मुखरित होने के साथ मेरे जीवन के कण-कण में गूंजने लगा। वह क्षमा का देवता मेरे अन्तर मन में साकार हो उठा । मैं उस विराट शक्ति का चिन्तन करने लगा कि जिसका बाल्यकाल सोने के महलों में गुजरा । जिसके जीवन की घड़ियाँ पुष्प-शय्या पर बीतीं । जिसका शरीर मक्खन की तरह सुकोमल था जो निरन्तर सुख के पलने में झूलता रहा । जिसने कभी दुःख की दुपहरी का दृश्य ही नहीं देखा । एक दिन वही एकान्त मशान भूमि में साधक के रूप में अविचल भाव से खड़ा है । मस्तक पर आग धधक रही है, किन्तु वह शान्त है, शीतल है ।
उस प्रवाह को जिस ओर बहाना चाहते थे, वह उस ओर प्रवाहित न होकर दूसरी ही दिशा में प्रवाहित हुआ । भारत के महासम्राट् श्रीकृष्ण छोटे भाई के लिए सुखों की दुनिया सजा रहे थे । वह राजकुमार को भोग-विलास एवं ऐश्वर्य की मजबूत बेड़ियों से बाँधने में प्रभावशील थे । तीन खण्ड के सम्राट् उसके विवाह की एवं उसके योग्य महल आदि बनाने की योजना में संलग्न थे, परन्तु होने वाला कुछ और ही था ।
उन्हीं दिनों भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधारे । गज सुकुमार का पहले कभी भगवान् की सेवा में उपस्थित होने का प्रसंग नहीं आया । यदि कभी आया भी हो तो बताया नहीं गया । यहाँ इतना ही बताया गया है कि उन्होंने पहली ही बार भगवान् के दर्शन किए थे । कृष्ण के
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