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समभावी साधक : गज सुकुमार
महाविजेता सम्राट विक्रमादित्य के राज्य को १७७६ वर्ष बीत चुके थे, ७७ वाँ वर्ष चल रहा था । भादव का महीना था, आकाश में मेघ मालाएँ इतस्ततः दौड़ लगा रहीं थीं । आकाश बादलों से आच्छन्न था, घटाएँ उमड़-घुमड़ कर आ रहीं थीं । काली घटाओं के सदृश्य ही मेरे सिर पर काले धुंघराले बाल लहर-लहर कर लहरा रहे थे । सारा मस्तक बालों से ढका हुआ था । यह मेरा पहला लोच था । सिर का एक-एक बाल हाथ से उखाड़ना था । लोग हैरान थे कि इतना बड़ा लोच कैसे होगा ? माताएँ तथा बहनें जिनका हृदय स्वभावतः सुकोमल रहा है और जिनका स्नेह एवं श्रद्धा हमें अधिक मिलती रही है, उन्हें लोच का सोच ज्यादा था । इस तरह सब भय के वातावरण में बहे जा रहे थे । तरुण आते और पूछते-“लोच करोगे ?" और हाँ करने पर पूछते-कैसे करोगे ?" अपने ही सिर का एक बाल बड़ी देर में उखाड़ते और दर्द का नाटक करते-“ओह ! बड़ा दर्द होता है, आप इतने सारे बाल कैसे उखाड़ोगे ?"
मेरे बाबा गुरु पूज्य मोतीराम जी म. कहते थे कि साधु बनने की कल्पना हो तो पहले विचार करना चाहिए कि उसे शूली की नोक पर चढ़ना है । कब चढ़ना होता है ? जबकि पहला लोच होता है । साधुओं को यह भय रहता है कि कहीं शिष्य पहले लोच में भड़क न जाए । अतः गुरु जन उसका लोच उस साधु से करवाते हैं, जिसका हाथ हल्का होता है । पर हाथ के हल्केपन से क्या ? आखिर दर्द तो होता ही है । बात यह है कि मन का विश्वास बना रहता है । एक बार हम विहार कर रहे थे, एक गाँव में ठहरे । फाल्गुन का महीना था, लोच कराने थे । हम में से एक साधक लोच कराने में कमजोर था, वह लोच करवाने बैठा । थोड़ी देर में दर्द होने लगा तो वह गुरुजी से झगड़ बैठा कि आपने लोच के लिए अच्छा दिन नहीं देखा । आज शनिवार को लुञ्चन करने बैठ गए, मुझे तो मार दिया । यदि सोमवार को लुञ्चन करते तो इतनी पीड़ा न होती । तत्त्वतः यह भ्रान्त धारणा है, वार या मुहूर्त पीड़ा को कभी कम नहीं कर पाते । क्या कभी ऐसा हुआ है कि शनिवार को एक व्यक्ति बेंत से पीटे तब दर्द हो और
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