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पर्युषण-प्रवचन
करना संन्यास है । इसीलिए उन्होंने योग की चलती हुई रूढ़ परिभाषा को नया मोड़ दिया
योगः कर्मसु कौशलम् योग अर्थात् कार्य की कुशलता—ज्ञान और अनासक्ति पूर्वक किया जाने वाला कर्म ही योग है । ज्ञानवाद को, हां उसी ज्ञानवाद को जो, जीवन से दूर भागकर मनुष्य को वाचाल और सिर्फ परोपदेश बनाता था उन्होंने 'प्रज्ञावाद' कहकर ललकारा है । ज्ञान और कर्म को जीवन सिक्के के दो पहलू के रूप में मानकर दोनों की ही अनिवार्य उपयोगिता स्वीकार की । सांख्य और योग को एक मानने वाला ही पण्डित होता है जो अलग-अलग मानता है वह अज्ञानी है-श्रीकृष्ण की यह उद्घोषणा उपनिषद् के ज्ञानवादियों के समक्ष चुनौती थी ।
इस प्रकार युद्ध-क्षेत्र में दिया गया कर्मयोग का उपदेश जीवन क्षेत्र में लड़ने वाले हर व्यक्ति के लिए मार्ग-दर्शक है । श्रीकृष्ण का पूरा जीवन दर्शन बहुत विस्तृत है, उसका सांगोपांग विवेचन न सही, किन्तु जो कुछ हम कर पाए हैं उसमें अगर एक दो बात भी हमारे जीवन में यथार्थ हो उठी तो आपका और हमारा श्रम सफल होगा । इसमें कोई सन्देह नहीं ।
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