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________________ कर्मयोगी श्रीकृष्ण नहीं की, जिन्हें वहाँ लड़ाई के मैदान में झोंकने के लिए उपस्थित किया गया था । किन्तु उसके मन में अपने रिश्तेदारों और स्नेहियों को समक्ष देख कर मोह जगा, और उस मोह को छिपाने के लिए दया और करुणा की बातें करने लगा । इसीलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-" कि तू अज्ञानता से त्रस्त हो रहा है, तू बातें बड़ी-बड़ी करता है, किन्तु मोह के चंगुल में फँस रहा है । " श्रीकृष्ण ने जो उस समय गीता का उपदेश दिया वह दया और करुणा के विरोध में नहीं दिया, किन्तु अज्ञान और मोह को हटाने के लिए दिया, कर्तव्य भूलकर फलासक्ति के चंगुल में फँसे हुए व्यक्ति का उद्धार करने के लिए श्रीकृष्ण ने वहाँ जो उपदेश दिया वास्तव में वह धर्म, नीति और अहिंसा का प्रतीक है । शान्ति और मैत्री के धागे न टूटने पाएँ इसीलिए उन्होनें दूत बनना स्वीकार किया - जो कि स्वयं सम्राट् थे । अपने को दूत कहलाकर और अनादर एवं अपमान सहकर भी उन्होंने शान्ति के लिए भारी प्रयत्न किए । वह दुर्योधन को युद्ध की विभीषिका के परिणाम समझाते हैं, यह बताते हैं कि इस युद्ध में हारने वाले की तो हार है ही, किन्तु जीतने वाले की भी हार ही होगी, वह भी आँसू बहाकर रोएगा । शान्ति के पैगम्बर बनकर ही उन्होंने विशाल साम्राज्य के पहले सिर्फ पाँच गाँव पर फैसला और सन्धि करने का प्रयत्न किया । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध को टालने के अनेक प्रयत्न किए, किन्तु जब फैसला नहीं हुआ तो, जबरदस्ती उन्हें युद्ध की घोषणा करनी पड़ी । फिर भी स्वयं शस्त्र नहीं उठाने की प्रतिज्ञा करके दोनों पक्षों को समान स्तर और समान शक्ति पर तोलने का प्रयत्न किया । गीता का नवनीत श्रीकृष्ण का गीतोपदेश वास्तव में जीवन दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष है । अकर्मण्यता को दया और हानि की ओट में छिपाने की प्रवंचना उस युग की महत्वपूर्ण समस्या थी । जो व्यक्ति समाज की जिम्मेदारियों को उठाने में असमर्थ हुआ, वही धर्म के नाम पर पलायन करके पूज्य बन बैठेगा जीवन की इस ज्वलन्त समस्या को गीता में बड़े खुले शब्दों में श्रीकृष्ण ने रखा — सिर्फ संन्यास से ही मुक्ति नहीं होती । समाज और राष्ट्र के कर्तव्य और उत्तरदायित्वों से भागना संन्यास नहीं, किन्तु उनको कुशलतापूर्वक निर्वाह ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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