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साम्राज्य की नींव डाली । था । एक उर्दू के कवि ने
पर्युषण -:
-प्रवचन
यह
सब चमत्कार उनके कर्मयोग का ही कहा है :
वह फूल सर चढ़ा जो चमन से निकल गया । इज्जत उसे मिली जो वतन से निकल गया ॥
वास्तव में श्रीकृष्ण के जीवन में यह बात बहुत ही सही घटती है ।
कर्मयोग के देवता
श्रीकृष्ण कर्मयोग के देवता के रूप में हमारे सामने आते हैं । उनकी राजनीति अभाव में भाव, अन्धकार में प्रकाश और दीनता में पुरुषार्थ का जोश भरने की राजनीति है । कुछ व्यक्ति श्रीकृष्ण की राजनीति को गलत रूप में भी लेते हैं, वे उस राजनीति को धोखा एवं धूर्तता की राजनीति मानते हैं । किन्तु ये विचार सिर्फ ऊपर की सतह पर चलने वाले हैं, गहराई में जाने पर मालूम होगा कि श्रीकृष्ण ने इस युग में प्रचलित गलत धारणा और परम्परा को चुनौती दी, इसलिए उनकी नीति के बारे में कुछ भ्रम पैदा हो गए ।
श्रीकृष्ण का वास्ता सिर्फ राजनीतिक महत्ता से ही नहीं, किन्तु धर्म के ठेकेदारों और पुजारियों से भी पड़ा । युधिष्ठिर – जिसे धर्मराज कहा जाता था, भरी सभा में अपनी पत्नी को भी दाँव पर लगा देता है, और दूसरी ओर यह कहता है कि झूठ नहीं बोलूँगा - कितनी बड़ी प्रवंचना है ?
श्रीकृष्ण ने इसे धर्म का आदर्श नहीं, किन्तु उसके नाम पर धोखा समझा । दया और करुणा के नाम पर अपनी कमजोरियों को छिपाने का नाटक खेलने वाली इस परम्परा को उन्होनें जड़मूल से मिटाना
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चाहा ।
अर्जुन भी जब अकर्मण्य बनकर रणक्षेत्र में दया और करुणा की बातें करने लगा तो श्रीकृष्ण ने पूछा – कि पण्डितों की तरह बातें करता है, किन्तु तेरा. पुरुषार्थ कहाँ सो गया है ? और यह करुणा के देवता कहाँ से आ गया है ?
अर्जुन में दया का ढोंग था, दरअसल वह अपनी दुर्बलताओं को छिपाने की कोशिश कर रहा था । गीता, महाभारत, श्रीमद्भागवत एवं हरिवंश पुराण के पढ़ने पर पता चलता है कि अर्जुन ने उन हजारों सैनिकों, नौजवान नागरिकों के मरने के बारे में तनिक भी चिन्ता व्यक्त
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