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क्रान्तिकारी महापुरुष : श्रीकृष्ण
हृदय के दर्शन करते हैं, जिसमें करुणा का राग छलक रहा है । महाभारतकार ने इस प्रसंग का ऐसा भावपूर्ण चित्र खींचा है, जिसमें करुणा और त्याग के रंग निखर उठे हैं । प्रत्येक प्राणी का हृदय चाहे वह किसी भी मत-मतान्तर का क्यों न हो, युद्ध न होने देने की श्रीकृष्ण की वृत्ति का समर्थन करेगा । इतना सब होने पर भी दुर्योधन के हृदय में करुणा का स्रोत नहीं फूटा और उसने कहा
"सच्यग्रं, नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव !" कैसी बात कर रहे हो कृष्ण ! क्या साम्राज्य ऐसे लिया और दिया जाता है ? साम्राज्य भीख में देने की चीज नहीं, लड़कर लेने की चीज है । जाओ, युद्ध की तैयारी करके आओ, फिर साम्राज्य लेना । तुम जन्म के ग्वाले साम्राज्य की भूमिका क्या जानोगे ? पांच गांव देना तो बहुत बड़ी बात है, सुई की नोंक जितनी भूमि भी मैं देने को तैयार नहीं हूँ । यह था दुर्योधन का उत्तर । भला, जब समझौते के सब दरवाजे बन्द कर दिए जाएँ, शान्ति की समस्त भावनाएँ नष्ट कर दी जाएँ, उस हालत में एक मजबूर राजनीतिज्ञ क्या कर सकता है ? क्या वह कायर बनकर घुटने टेक दे ? नहीं, राजनीति ऐसा करना नहीं सिखाती । तब श्रीकृष्ण कहते हैं-"तुम स्वयं अपना विनाश मोल ले रहे हो दुर्योधन ! तुम्हारी मौत सिर पर मंडरा रही है । यदि तुम खूखार बनकर युद्ध ही करना चाहते हो तो तैयार हो जाओ । कृष्ण तुम्हें युद्ध ही देगा ।"
श्रीकृष्ण और दुर्योधन का यह संवाद राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । राज्य-शास्त्र यह कहता है कि जब दूसरा कोई उपाय न रहे, तब हथियार उठाओ । महाकवि भवभूति लिखते हैं :
यशः शरीरेण जीवति । राजा रक्त का प्यासा नहीं होता । वह इन्सान की गर्दन से खिलवाड़ नहीं कर सकता । वह द्वेष-भाव से मानव के पेट में तलवार नहीं घुसेड़ सकता । जब शत्रु के अन्याय का प्रतिकार करने में अन्य समस्त उपाय असफल हो जाएँ और शक्ति प्रयोग के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही न रह जाय, तभी राजा हथियार उठाता है । और जब वह हथियार उठाता है तो अन्याय, अत्याचार को समूल नष्ट कर देता है । फिर कायर बनकर पीठ नहीं दिखाता । जैसे एक वैद्य शरीर पर उभरे हुए फोड़े को ठीक करने कि लिए औषधियों का इस्तेमाल करता है, इन्जेक्शन
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