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पर्युषण-प्रवचन
में अर्पित कर देता था । शास्त्र पाठ है-“संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।" संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करके वह ज्ञान की साधना में लीन हो जाता था । गुरु के सान्निध्य में रह कर शिष्य एकादश अंगों का अथवा चतुर्दश पर्वो का अध्ययन और मनन करता था । . तभी तो उस साधक के जीवन में ज्योति प्रकट होती थी । इस प्रकार के जीवन को ही वस्तुतः सच्चा साधक-जीवन कहा जाता है । ज्ञान और तप
ज्ञान और तप दोनों ही पवित्र हैं । जीवन की कालिमा को धोने में दोनों ही समर्थ हैं । किन्तु सवाल है कि पहले कौन और पीछे कौन ? पहले ज्ञान अथवा पहले तप ? निश्चय ही सवाल बड़ा पेचीदा है । आप अपने मन में सोचते होंगे कि महाराज क्या निर्णय देते हैं । परन्तु मैं कहता हूँ कि निर्णय देने का सवाल ही नहीं उठता । शास्त्र में वह निर्णय कर दिया गया है । शास्त्र कहता है-पहले अध्ययन, फिर तप । बात यह है कि भारत की साधना बहुत बड़ी साधना है । उसका ज्ञान-योग भी ऊँचा है और उसका कर्म-योग भी बहुत ऊँचा है । भारतीय संस्कृति में ज्ञान
और कर्म दोनों को महत्त्व मिला है । फिर भी मुझे स्पष्ट कहना चाहिए कि यदि दोनों में क्रम दिया जाए तो पहले ज्ञान होगा, फिर कर्म होगा । पहले विचार होगा, फिर आचार होगा । इस विषय में भगवान महावीर ने कहा था-"पढमं नाणं तओ दया ।" पहले आँखें खोलो, ज्ञान प्राप्त करो कि तुम कौन हो ? संसार में तुम्हारा आगमन किस लिए हुआ है ? तुम्हारे सामने साधना का मार्ग कैसा है ? और तुम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हो ? बिना विचार और विवेक के यह सब काम नहीं हो सकता है । अतः पहले विवेक प्राप्त करो, फिर तुम साधना के मार्ग पर चलकर जो भी तप करोगे, साधना करोगे, वह आत्म-कल्याण के लिए होगी । जो आत्मा अज्ञानी है, जिसको पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? यह भी पता नहीं है कि अशुद्ध दशा क्या है और शुद्ध दशा क्या है ? जो आत्मा और परमात्मा के रहस्य को नहीं जानता, वह कभी भी आत्म-कल्याण नहीं कर सकता । विमल विवेक से ही जीवन का रहस्य ज्ञात हो सकता है । किसी अनुभवी कवि ने कहा है
"देखा-देखी साधे जोग,
छीजे काया बाधे रोग ।"
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