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वैराग्य मूर्ति : गौतम कुमार
नगरी के नागरिक भगवान का उपदेशामृत सुनने के लिए गये । गौतम ने भी भगवान् के दर्शन करने की और वाणी सुनने की भावना की । ज्ञाता सूत्र में वर्णित मेघकुमार के समान गौतम कुमार भी भगवान् अरिष्टनेमि का प्रवचन सुन कर आत्म-विभोर हो गया । अध्यात्म - भावना उसके मन में जागृत हो गई । जिस संसार को वह आज तक सुखमय समझ रहा था, आत्म-1 - विवेक होने पर अब वह उसी संसार को बन्धन समझने लगा; दुःखमय समझने लगा । गौतम ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन किया
"प्रभो ! आपका प्रवचन सुन्दर है, मधुर है और सरस है । वह मेरे मन के कण-कण में रम गया है । मैं उस पर विश्वास करता हूँ, प्रतीति करता हूँ और श्रद्धा करता हूँ । मेरी यह अभिलाषा है कि मैं आपके श्री चरणों में रहकर संयम की साधना करूँ । मैं अपने माता और पिता से अनुमति लेकर दीक्षा ग्रहण करूँगा ।" गौतम कुमार जो अभी तक भोगवादी था, त्याग - धर्म से प्रभावित होकर अपने घर लौटा और अपने माता-पिता से संयम - साधना की अनुमति माँगी । जैन परम्परा के अनुसार जब तक साधक अपने अभिभावकों से अनुमत न हो जाए, तब तक दीक्षित नहीं बन सकता । यह नहीं कि कोई भी आ जाए और झट से मुण्डित हो जाए । अतः आज्ञा के बिना न तो दीक्षित होने वाला दीक्षा ही ग्रहण कर सकता है और न ही गुरु उसे अपना शिष्य बना सकता है । यही कारण है कि शास्त्रों में जहाँ कहीं दीक्षा का वर्णन आया है, वहाँ माता-पिता और अभिभावकों से अनुमति प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है । आज की बात मैं आप से नहीं कह रहा हूँ । आज की स्थिति बड़ी विचित्र है । आज तो इधर आया, उधर मुड़ा । बात स्पष्ट कह दूँ तो सम्भवतः आज के धर्मगुरु रुष्ट हो जाएँ । दीक्षा लेना बुरा नहीं है । संयम की साधना करना बहुत अच्छा है । किन्तु जिस पद्धति से आज शिष्य बनाया जाता है अथवा गुरु बनाया जाता है, वह मुझे पसन्द नहीं । उसमें दोनों तरफ प्रलोभन दृष्टिगोचर होता है । आज प्राय: दीक्षा के महत्त्व को न देने वाला समझता है और न लेने वाला । फलतः दोनों का ही जीवन शून्य रहता है ।
परन्तु प्राचीन काल की व्यवस्था और पद्धति बहुत सुन्दर थी । अभिभावकों की अनुमति मिलने पर साधक अपने जीवन को गुरु के चरणों
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