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________________ पर्युषण-प्रवचन हो रहा है । तुम उस अंधकवृष्णि के वंशज हो, जिसने न्याय और नीति के लिए जीवन में अनेक कष्ट सहे । उस महापुरुष की संतान होकर इतने हीन और पददलित हो गये हो कि ऐसी निकृष्ट बातें मुँह से निकाल रहे हो । तुम किस मुँह को लेकर वापिस महलों में जाओगे ? जिसे त्याग कर चुके हो, उसे ही फिर ग्रहण करना चाहते हो ? यह तो ऐसी ही बात हुई कि कोई खूब अच्छा भोजन करे और उसे वमन हो जाय तो फिर से इस वमन को खाले । वमन के भोजन से तो मर जाना कहीं अधिक अच्छा है । और क्या यह भी जानते कि मैं राजा भोजकराज के निर्मल वंश की उत्तराधिकारिणी हूँ, अतः मैं अपने पवित्र जीवन की रक्षा के लिए प्राण दे सकती हूँ, किन्तु पथ - भ्रष्ट नहीं हो सकती । अस्तु, तुम मेरी लाश पर मरते ही अधिकार पा सकते हो, परन्तु जीते जी मेरे शरीर का स्पर्श नहीं कर सकते । राजुल के इन स्वाभिमान एवं जातीय गौरव भरे वाक्यों ने रहनेमि के भावों का प्रवाह बदल दिया । उसके गिरते हुए जीवन को सहारा देकर थाम दिया । उसे अपने उज्ज्वल वंश के गौरव का ज्ञान हुआ । कीर्तिमय परम्परा का भान हुआ और जैसे बंधन तोड़कर भागा हुआ गजराज अंकुश लगने पर वश में आ जाता है, उसी प्रकार राजुल के वचनों से रहनेमि भी ऐसा वश में आया, ऐसा मँजा कि बस फिर कभी नहीं भटका । सीधे मोक्ष में जाकर ही विराजमान हुआ । और राजीमती भी मोक्ष प्राप्त कर गई । रहनेमि की उस मनोदशा पर और किसी तत्त्वज्ञान का असर नहीं हुआ किन्तु अपने क्षत्रियत्त्व के गौरव का स्मरण होने पर अपने पूर्वजों के उज्ज्वल इतिहास की स्मृतियाँ सामने उभर आने पर अपने आप वह सुधर गई । अतः हमें अपने गौरवमय इतिहास का अध्ययन, मनन और अनुशीलन करना चाहिए, इतिहास की वे कथाएँ सिर्फ कहानियाँ मात्र नहीं हैं । उनमें इसी प्रकार की भावनाएँ संजोई हुई हैं, कि उनके अध्ययन से आत्म- गौरव जागृत होता है । अन्तकृत सूत्र का महत्त्व अन्तकृत सूत्र में इसी प्रकार की गौरवपूर्ण कहानियाँ भरी हैं, वे सिर्फ कहानियाँ ही नहीं हैं, किन्तु हमारे पूर्वजों और महान आत्माओं का प्रकाश है, जिसके सहारे हमें दुःखों में और तो क्या सूली की नोंक पर भी Jain Education International २२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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