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________________ हमारे प्रेरणास्त्रोत : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ बच्चों का मानसिक विकास यदि किसी बच्चे को निरन्तर बुद्धू, मूर्ख, पागल आदि शब्दों से पुकारा जाय तो निश्चित है कि उसका मानसिक विकास, प्रगति और उन्नति रुक जायेगी । वह धीरे-धीरे इन हीन विचारों से प्रभावित होने लगता है, और अन्ततः अपने को दीन, हीन एवं अयोग्य मानने लग जाता है, ऐसे बच्चों का मन घृणा और कुंठा से भरा रहता है । वे कहीं खुल कर बोल नहीं सकते, उन्हें किसी भी कर्म पथ पर बढ़ने का साहस भी नहीं हो सकता । तो माता-पिता ऐसा करते हैं वे यद्यपि अपने बच्चों के शारीरिक पोषण की ओर काफी ध्यान देते होंगे किन्तु उनको मानसिक दृष्टि से कमजोर करते हैं । उनके जीवित मन की हत्या करते हैं । हम एक ओर उसे बुद्ध, गदहा, बदमाश आदि कहते हैं और दूसरी ओर यह आशा करते हैं कि वह विद्वान्, वीर और सदाचारी बना रहे । परन्तु ऐसा कभी नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों में भाषा विवेक पर विवेचन करते हुए इसीलिए कहा है कि किसी दास को दास भी मत कहो, किसी रोगी, दुराचारी, और अपंग को उसकी हीनता को लक्ष्य करके एक भी शब्द मत बोलो । इस विचार के पीछे यही मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि ऐसी ध्वनियाँ धीरे-धीरे व्यक्ति पर वैसा ही असर डालती हैं । कभी-कभी अनेक परिवारों में ऐसा देखा जाता है कि किसी बच्चे से कोई नुक्शान हो गया तो ऐसा लगता है मानो घर में भूकम्प ही आ गया और तो क्या, बच्चे से कोई काँच का गिलास फूट गया तो अभिभावक ऐसे आकुल-व्याकुल होते हैं कि जैसे हमारा भाग्य फूट गया हो । खेद है उनकी दृष्टि में उस गिलास का जितना महत्त्व है उतना भी महत्त्व अपने बच्चे का नहीं है । यही कारण है कि उक्त साधारण भूल पर बच्चों को अनेक दुर्वचनों से प्रताड़ित करते हैं, और कभी - कभी कड़ी से कड़ी सजा भी दे देते हैं । वे यही मानते हैं कि बच्चों को हमेशा डराते धमकाते ही रहना चाहिए -लालने बहवो दोषाः ताडने बहवो गुणाः - इस प्रकार उन बच्चों में अपने प्रति और परिवार के प्रति हीन भावना, घृणा और द्वेष के संस्कार जमते हैं जिनमें से भविष्य में जाकर अनेक बुरे परिणाम प्रकट होते हैं । बचपन की अवस्था एक ऐसी अवस्था होती है जब बच्चों का अन्तर मन अँगड़ाई लेता रहता है । जीवन के मैदान में वह जूझने के लिए अग्रसर होता रहता है उसमें एक गिलास के बदले लाखों करोड़ों गिलासों के बनाने की क्षमता रहती है, जिसके विकास की अपेक्षा है । Jain Education International १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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