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पर्युषण-प्रवचन
और धर्म की परम्पराएँ छिन्न-भिन्न होने लग जाती हैं । उसके रक्त की ऊष्मा ठण्डी पड़ जाती है और वह अपने उन्नति और विकास के मार्ग से हटकर अवनति एवं ह्रास की ओर बढ़ जाता है । परन्तु इसके विपरीत यदि कोई अन्दर की गहराइयों में उतर कर पूर्वजों के महत्त्व, बल, विक्रम, शौर्य, ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र के दर्शन करता है तो उसे भान होता है कि वह कैसी महान आत्माओं का उत्तराधिकारी है ? उसके उन पराक्रमी पूर्वजों का ऊर्जस्वल रक्त अब भी उसकी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है । वे विवेक और विचार के धनी पूर्वज किस प्रकार संकट एवं अन्धकार की घड़ियों में अपना पथ प्रशस्त करते रहे, और आभ्यन्तर एवं बाह्य शत्रुओं से जूझते रहे तब अवश्य ही उसे वह दिव्य प्रकाश प्राप्त हो जाता है, जिसके प्रकाश में वह अपनी भूली हुई राह फिर प्राप्त कर लेता है । उसकी हीन भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं और एक अक्षय जीवन का स्रोत उसके मानस में उमड़ पड़ता है ।
हीन भावना के कीटाणु
मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति हीन भावना के कीटाणुओं से ग्रस्त या आक्रांत हो जाता है वह कभी उन्नति नहीं कर सकता । क्षय के रोगी की तरह ये हीनता के कीटाणु उसे अन्दर ही अन्दर से खोखला करते रहते हैं । यदि इस रोग से उसे बचाना हो तो शुद्ध संकल्पों को जगाओ, उसकी भावना में महानता के आदर्श भरो, उसके विचारों में ऊँची-ऊँची कल्पनाओं का संचार करो कि तुम समाज और राष्ट्र के अत्यन्त उपयोगी अंग हो, तुम में भी राष्ट्र को मोड़ देने की अपार शक्ति है । ईसा ने अपने उपदेश में एक जगह कहा है – “तुम यह मत सोचो कि संसार में हमारा कोई अस्तित्त्व नहीं है । तुम इस सृष्टि के नमक हो, संसार का स्वाद बदलने की क्षमता तुम्हारे में है" । वास्तव में हमें मानवीय मानस के मूल को सींचना चाहिए नाकि पत्तों को । जहाँ पर हीन भावना के कीटाणु पैदा होकर जीवन - वृक्ष का रस सोख रहे हैं वहीं पर उनको मिटा कर उच्च संकल्पों का जल सींचने की बात भारतीय विज्ञान की महत्त्वपूर्ण परम्परा है । यदि उस मूल पर ही प्रहार किया जाय तो फिर शाखाएँ कैसे निकलेंगी, विकास कैसे हो सकेगा ?
वृक्ष का
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