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________________ धर्म का मूल : विनय - की जिन्दगी से खिलवाड़ करते हैं । दूसरों के खून पर पलते हैं, भला उस जिन्दगी का भी कोई महत्त्व है ? जीवन वह है, जो उन महान आत्माओं ने बिताया है । हाँ, तो आप उनके प्रति अपने मन और मस्तिष्क को झुकाइए । इतिहास और आगम के पृष्ठों पर आप कभी गौतम के दर्शन करते हैं और कभी गज सुकुमार के, कभी गौरी-गान्धारी आदि राजरानियों की झाँकियाँ देख लेते हैं । कितना सुन्दर जीवन है ? कितना स्नेह-पूर्ण जीवन है ? मैं समझता हूँ, उस युग के सामने विश्व का असीम ऐश्वर्य ठुकराया जा सकता है, उन त्याग और वैराग्य से ओत-प्रोत जिन्दगियों के सामने संसार के ऐश्वर्य का कोई मूल्य नहीं । , इन महापुरुषों के जीवन में त्याग और तप का स्रोत कहाँ से आया ? एक दिन ये भी किसी महापुरुषों के समीप पहुँचे थे, गद्-गद भाव से उनकी वाणी श्रवण करने पर इनके रोम-रोम से अमृत की धारा बह निकली, समस्त जीवन अनुपम ऐश्वर्य से चमक उठा और वे हमारे सामने जिन्दगी का एक महान् प्रकाश लेकर खड़े हैं । सद्गुणों का स्रोत : विनय ___ जो विनय के मार्ग पर अग्रसर होते हैं, उनका जीवन अद्भुत और तेजस्वी होता है । जीवन के साथ ही उनका ज्ञान भी चमकता है । एक व्यक्ति अध्ययन करता है, पुस्तकें पढ़ता है, दुनिया भर के तर्क-शास्त्र भी पढ़ लेता है, पर वे यदि निरन्तर गुरुजनों से पढ़े गये हैं, जिन महापुरुषों की वाणी है, उनके प्रति श्रद्धा से मन और मस्तिष्क झुक रहा है, तो वह हृदय और वह ज्ञान जगमगा उठता है । उसका मुख-मण्डल अनुपम आशा से दमकने लगता है । भारतवर्ष का एक तरुण युवक घूमता हुआ कहीं जा रहा था । राह में उसे एक ऋषि दिखाई दिए । ज्यों ही उस तरुण ने उन्हें देखा, तो उसने झुक कर अभिवादन किया । महर्षि ने कहा—“सौम्य ! तुम्हारे मुख पर एक अनूठा तेज है, चेहरा ऐसे चमक रहा है, मानो तुमने परम सत्य के, ब्रह्म के दर्शन कर लिए हों । क्या तुमने गुरुजनों से उपलब्ध किया है ? गुरुजनों के द्वारा अध्ययन करने पर ही जीवन में इस प्रकार से विनय चमकता है ।" हमारी संस्कृति का रूप ही विनय से प्रारम्भ होता है और वह विनय में ही जाकर समाप्त हो जाता है । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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