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________________ पर्युषण-प्रवचन विनय का अर्थ है—गुणों का आदर करना, सत्य के प्रति अभिरुचि जागृत करना । अहिंसा, दया, क्षमा, प्रेम आदि सभी सद्गुण विनय के होने पर ही चमकते हैं । विनय के बिना इसका कोई मूल्य नहीं । आगम में द्वारिका नगरी का वर्णन आता है । यादव-जाति ने समुद्र तट पर द्वारिका का निर्माण किया और समुद्र के लहरों की थपेड़ों पर खड़ी उस द्वारिका में असीम वैभव का सञ्चय किया । उस द्वारिका का निर्माण किस स्थिति में हुआ ? यादवों के आपस के प्रेम और स्नेह के बल परं ही वह शहर बसाया जा सका । वहाँ छोटे-बड़ों को सम्मान देते थे और बड़े छोटों का आदर करते थे, उनमें अनुशासन का बल था, उन युवकों के मानस में उल्लास की बिजलियाँ चमकती थीं । वे जिधर भी गये, वहीं उनको विजय मिली, उनके साहस और शक्ति के बल पर निर्मित द्वारिका एक दिन संसार के सम्मुख चमकी और हजारों-हजार वर्ष तक चमकती रही । पर उस विराट द्वारिका के ऐश्वर्य का अन्तिम परिणाम किस रूप में आया ? जब तक यादव युवकों के जीवन में स्नेह; करुणा और त्याग-तप की चमक रही, जब तक उनमें अपनी आन, बान और शान के प्रति मर मिटने की लालसा रही, जब तक वे ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त नहीं हुए, जब तक वे न्याय से राज्य-संचालन करते रहे, तब तक, वह यादव-जाति भारतवर्ष के कोने-कोने में फैली और भारतवर्ष के ऐश्वर्य का केन्द्र द्वारिका नगरी बन गई, किन्तु जब वही यादव-जाति स्वर्ण-प्रासादों की छाया में मानवता को भुला बैठी, भोग-विलास के प्रवाह में बह कर उन्होंने त्याग-तप को ठुकरा दिया, तलवारों से संहार करने पर तुल गये और नैतिक बल को भूल गये तो इनका परिणाम क्या हुआ ? भारतवर्ष की वह सोने की नगरी एक दिन समाप्त हो गई, उसका सारा ऐश्वर्य जाता रहा । भारतवर्ष के इतिहास में सोने की दो ही नगरियाँ प्रसिद्ध हैं । एक द्वारिका और दूसरी लंका । दोनों का ही अन्तिम परिणाम आपके सामने है । राक्षस जाति जब तक त्याग के बल पर रही, राक्षस जाति के वीर पुरुष जब तक विश्व-कल्याण के लिए कार्य करते रहे, तभी तक वे सोने की लंका का निर्माण करने में सफल रहे । दुनिया का सारा ऐश्वर्य उनके चरणों में लौटने लगा, पर जब वे उस स्वर्ण के मोह में अपने आपको भूल गये, दुनिया में अन्याय और अत्याचार करने लगे तो उनका अस्तित्व भी लड़खड़ाने लगा, वह सम्पूर्ण वैभव समाप्त हो गया और सोने की लंका मिट्टी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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