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________________ पर्युषण-प्रवचन - (या विश्वास) इस प्रकार की है कि भगवान ही हमें मन के विकारों एवं पापों से दूर करेंगे । हम तो बालक की तरह अज्ञानी हैं, विकारों के कीचड़ में फंस जाते हैं । किन्तु शुद्ध एवं पवित्र होना हमारे हाथ की बात नहीं है, भगवान जब दया करके बालकों को पवित्र बनाएगा, तभी हम शुद्ध हो सकते हैं । दूसरी एक संस्कृति है—नव जवानों की । जिस प्रकार एक युवक बहुत ही सावधानीपूर्वक रहता है । अपने जीवन के उत्तरदायित्वों में भी हाथ बँटाता है । बच्चा जहाँ अपने शरीर व वस्त्रों को जल्दी गंदा कर लेता है, और फिर सफाई के लिए माता को ओर ताकता है, वहाँ नवयुवक जल्दी से अपने को गन्दा भी नहीं होने देता, अपने होश-हवास सँभाले रखता है और यदि गन्दा हो भी जाए तो सफाई के लिए माँ-बाप या किसी अन्य के सामने जाकर नहीं रोता, किन्तु स्वयं ही अपने को शुद्ध एवं पवित्र मानकर खड़ा कर लेता है । इस प्रकार उस विद्वान ने बताया कि जैन दर्शन व संस्कृति नवयुवकों का दर्शन और संस्कृति है वह स्वयं अपने पर ही उत्तरदायित्वों का बोझ लेता है और उन्हें निबाह लेता है । सच्चा सूर्यमुखी जिस साधक में सच्ची लगन होती है, अहिंसा-सत्य आदि के पथ पर काँटों और खाइयों की परवाह किए बिना अडिग भाव और जीवट के साथ चलता रहता है वह आखिर अपने लक्ष्य की ओर पहुँच ही जाता है । भगवान को सामने रखकर वह उससे प्रेरणा ग्रहण करता है और उसके पद चिन्हों के प्रकाश में बढ़ते हुए अपनी मंजिल का दर्शन करता है । उसका लक्ष्य, और गति सूर्यमुखी के समान होती है । सच्चा सूर्यमुखी फूल वही है, जिसका मुख सूर्य की गति के साथ-साथ घूमता रहेगा, जिधर सूर्य की दिशा होगी उधर ही उसका मुख होगा । सूर्य के प्रकाश की ओर निरन्तर उन्मुख रहता है । इसी प्रकार सच्चा साधक भगवान की ओर उन्मुख हुए उसके प्रकाश में निरन्तर बढ़ता रहता है । उसके सामने सिर्फ एक ही लक्ष्य, एक ही प्रकाश होता है । शास्त्रों में कहा गया है कि साधक अपनी साधना पर साँप की तरह एकाग्र दृष्टि रहे । अहीव एगंत दिढ़िए ___ -भ० महावीर और उसकी वही एक-निष्ठता उसके अन्दर खोए हुए ईश्वरत्व को -- १३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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