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________________ मार्ग और मंजिल अन्धकार की ओर मुड़ गए । वहाँ भगवद् दर्शन से ही एक प्रकार की संतृप्ति की भावना बना ली गई । किन्तु जैन दर्शन इतने मात्र से कभी प्रसन्न होने वाला नहीं है । वह कहता है—भगवान को खोजते-खोजते हम कितने जन्मों तक फिरेंगे, जब कि हमारी आत्मा में भी वही शक्ति विद्यमान है । हम स्वयं भी भगवान बन सकते हैं । ईश्वरत्व के सिंहासन पर बैठ सकते हैं । कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जैन दर्शन अनीश्वरवादी दर्शन है । बात कुछ हद तक तो ठीक है, जैन दर्शन उस ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो विश्व का कर्ता-धर्ता हो, जो समस्त सृष्टि को अपने इशारे पर कठपुतली की तरह नचाता हो । वह उस ईश्वर की सत्ता को कभी स्वीकार नहीं करता, जिसके समक्ष हम सब मिट्टी के ढेले के समान हों, हमारा कोई भी संकल्प और कोई भी त्यक्तित्व नहीं हो । वह यह भी नहीं मानता कि स्वर्ग और मोक्ष हमें उस परम सत्ता से भीख माँगने पर मिलेंगे, जिसके लिए उस सत्ता को प्रसन्न करने की आवश्यकता हो । जैन दर्शन भीख के रूप में स्वर्ग के वैभव और मोक्ष के आनन्द को भी माँगने से इन्कार करता है, उसका पुरुषार्थ इसमें लज्जित होता है । वह अपने भाग्य का स्वयं विधाता है स्वयं की आत्मा में ही अनन्त शक्तियों का दर्शन करता है । उसका यह विश्वास अभिमान नहीं किन्तु आत्म-गौरव की भावना जगाता है । दीनता को मिटाकर तेजस्विता बढ़ाता है । बालकों की संस्कृति एक बार किसी विद्वान से जैन एवं अन्य संस्कृति के सम्बन्ध में चर्चाएँ चलीं । मैं स्वयं किसी को ऊँचा-नीचा नहीं मानता, शंकर, कपिल, गौतम और कणाद आदि का मैं ऋणी हूँ । उनके विचारों से मुझे बहुत कुछ मिला है, किन्तु उस विद्वान ने बताया कि भारतवर्ष में दो प्रकार की संस्कृतियाँ चल रही हैं । एक संस्कृति बालकों की संस्कृति है, बालक जब घर से निकल भागता है, धूल और कीचड़ में अपने को गंदा कर लेता है तो स्वयं तो उसे साफ कर नहीं सकता, तब माँ की ओर दौड़ा आता है, माँ उसे डाँटती है, धमकियाँ भी देती है और कभी-कभी दो थप्पड़ भी लगा देती है, कि अभी-अभी तो तुझे नये साफ-सुथरे कपड़े पहनाए थे और .अभी गंदे कर दिए । माँ बच्चे को आगे से ऐसा करने के लिए डांट-डपट भी दिखाती है और सफाई भी करती है । अतः एक संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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