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________________ नारी-जीवन ___भारतवर्ष के दार्शनिकों ने किसी भी परिवार के लिए, किसी भी समाज के लिए और किसी भी राष्ट्र के लिए तीन शक्तियों की आवश्यकता बताई है । एक शक्ति वह है जो कि बल की है । एक वह है, जो कि बौद्धिक शक्ति है और एक शक्ति वह है, जो कि धन के रूप में है । ____ कोई भी परिवार, समाज या राष्ट्र, जो कि जिन्दा ही मुर्दा हो गए हैं, उनके ऊपर कोई गर्व कर सकता है ? पहला साधन बल है । जिसमें बल है, मन की सुदृढ़ शक्ति है, वह सब कुछ कर सकता है, और यह, नहीं रही तो कुछ नहीं हो सकता । बल है, वहाँ सब कुछ है । बल का अर्थ है, स्वस्थ और सुदृढ़ शरीर । स्वस्थ शरीर स्वस्थ मन का घर है । धर्म की आराधना के लिए भी स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है । एक निर्बल की अपेक्षा बलवान व्यक्ति धर्माराधना विशेष रूप में कर सकता है । शास्त्र कहते हैं-मुक्ति पाने के लिए, साधना के उस कठोरतम मार्ग पर चलने के लिए वज्रऋषभनाराच संहनन होना आवश्यक है । इस पर से हम बल की महत्ता का मूल्यांकन कर सकते हैं । शारीरिक बल के साथ ही बौद्धिक शक्ति का होना भी अनिवार्य है। हड्डी का शरीर ले लें, दो चार मन मांस और हड्डियों का ढेर कर लें, परन्तु अगर उसमें दिमाग की शक्ति नहीं है, समाज के प्रति, परिवार के प्रति, राष्ट्र के प्रति मेरा क्या कर्तव्य है ? दूसरों के साथ कैसे रहना चाहिए ? जीवन के कठिन प्रश्नों पर विचार करने की शक्ति उसमें नहीं है, तो मैं पूछू कि ऐसा परिवार, समाज या राष्ट्र कैसे जिन्दा रह सकता है ? कोई भी समाज हो, जब प्रश्न खड़े होते हैं; अग्नि की तरह जलते हुए, दावानल की तरह धधकते हुए, तो उस समय मनुष्य घबड़ा कर खड़ा हो जाता है, मस्तिष्क काम नहीं देता और उस प्रश्न के उत्तर में वह यह भी नहीं कह सकता, वह भी नहीं कह सकता । धर्म और कर्म के प्रश्न सामने आने पर निर्णय करने की क्षमता न होने के कारण यदि एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे, तो वह समाज कब तक जीवित रहेगा ? आज का जिज्ञासु साधक प्रत्येक प्रश्न का समाधान चाहता है । आज तर्क का युग है, वह ज्वालामुखी की तरह गरज कर बाहर आ रहा है. । जीवन के मैदान में अब लड़ने का समय आ गया है और योद्धाओं की तलवारें चमक रहीं हैं, मतलब कर्म की तलवारें । आज जैन धर्म से क्या वह किसी भी धर्म से पूछता है कि अब क्या करना है और क्या नहीं करता है ? हां, महाभारत काल में जैसे एक अर्जुन हो गया - १२५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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