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पर्युषण-प्रवचन
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भारतवर्ष के दार्शनिक इतिहास में, आध्यात्मिक इतिहास में सामाजिक और राष्ट्रीय इतिहास में ठीक तौर पर इस समाज का विश्लेषण किया गया है कि मानव समाज एक शरीर है । जैसे कि आपका शरीर एक छोटा-सा केन्द्र है, उसी प्रकार सारे इन्सानों को मिलाकर यह एक समाज रूपी विराट शरीर है । इस विराट शरीर के दो भाग किए गए हैं । एक भाग में नारी खड़ी है और दूसरे भाग में नर । एक तरफ बहिन खड़ी है और दूसरी तरफ भाई । जीवन के इन दो भागों को मिलाकर एक रूप दे दिया गया है । इस एक रूप में हजारों, लाखों, करोड़ों नारियाँ समाज रूपी शरीर के इस एक भाग का प्रतिनिधित्व कर रही हैं और हजारों, लाखों, करोड़ों मनुष्य दूसरे भाग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो मानव समाज न केवल नर है और न केवल नारी ही है । नर
और नारी दोनों मिल कर, केवल ऊपर से ही नहीं अन्दर से मिलकर, एक दूसरे के जीवन में ओत-प्रोत होकर पुरुष के ह्रदय में नारी मिल जाए और नारी के हृदय में पुरुष मिल जाए; इस प्रकार से एक दूसरे के हृदय में प्रवेश की कहानी है । दार्शनिक भाषा में इसी को समाज कहते हैं ।
मैं, आपसे बात कर रहा था कि हमारे इस भारतीय जीवन में और चिन्तन में कुछ लोगों ने भूल से पुरुष को महत्व दे दिया है और उसकी महत्वपूर्ण कथाएँ एवं आदर्श संसार के सामने रखे गए हैं । यह ठीक है कि स्थूल रूप में, बाह्य रूप में, जीवन की हलचल में, संघर्ष में पुरुष हिमालय की भाँति खड़ा रहा है और इसीलिए उसकी खूब पूजा होती रही । उसने अपनी पूजा संसार में आगे बढ़-बढ़ कर कराई भी हैं । लेकिन वे गंगाएँ, जो कि एक से दूसरे सिरे तक भारतवर्ष के मैदान में बहीं; वह यमुनाएँ, जो कि भारतवर्ष के मैदान में जिधर भी निकलीं, उधर अपनी सरलता, शीतलता और जीवन की मधुरता बहाती रहीं, उस नारी को इस विराट समुद्र में लीन कर दिया गया है, उसका अस्तित्व समाप्त कर दिया गया है। भारतवर्ष की नारियाँ विराट हिमालय से दैत्याकार रूप में तो खड़ी नहीं हो सकीं, लेकिन उनके हृदय, गाम्भीर्य
और प्रेम से छलकती हुई गंगाएँ, यमुनाएँ या सरस्वतियाँ परिवार में, समाज में, राष्ट्र में, धर्म के क्षेत्र में और कर्म के क्षेत्र में बहती रहीं हैं । जिनके ऊपर हजारों, लाखों, करोड़ों वर्षों से मानव समाज टिका हुआ है।
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